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अनेकान्त
[भाषाद, वीर-निर्वाण सं० २४६५
पूर्वक संयोग किया हो अथवा संयोग हुआ हो, तो में समाधान हो सकना संभव है। क्योंकि इस भी वह उसी तरह की जाति का होता है, अर्थात् सम्बन्धमें अनेक प्रश्न उठ सकते हैं जिनके फिर वह जड़स्वरूप ही होता है, ज्ञानस्वरूप नहीं होता। फिरसे समाधान होनेसे, विचार करनेसे समातो फिर उस तरहके पदार्थके संयोग होने पर धान होगा।
आत्मा अथवां जिसे ज्ञानी पुरुष मुख्य 'शानस्वरूप (२) ज्ञान दशामें-अपने स्वरूपमें यथार्थ लक्षणयुक्त' कहते हैं, उस प्रकारके (घट पट आदि, बोधसे उत्पन्न हुई दशामें-वह आत्मा निज भावपृथ्वी, जल, वायु, आकाश, पदार्थसे किसी तरह का अर्थात् ज्ञान, दर्शन (यथास्थित निश्चय ) और उत्पन्न हो सकने योग्य नहीं। 'ज्ञानस्वरूपत्व' यह सहज-समाधि परिणामका कर्ता है; अज्ञान दशामें आत्माका मुख्य लक्षण है, और जड़का मुख्य- क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि प्रकृतियोंका लक्षण 'उसके अभावरूप' है । उन दोनोंका कर्ता है और उस भावके फलका भोक्ता होनेसे अनादि सहज स्वभाव है । ये, तथा इसी तरहके प्रसंगवश घट पट आदि पदार्थोंका निमित्तरूपसे दूसरे हजारों प्रमाण अात्माको 'नित्य' प्रतिपादन कर्ता है । अर्थात घट पट आदि पदार्थोंका मूल कर सकते हैं। तथा उसका विशेष विचार करने द्रव्योंका वह कर्ता नहीं, परन्तु उसे किसी आकापर नित्यरूपसे सहजस्वरूप आत्मा अनुभवमें भी रमें लानेरूप क्रियाका ही कर्ता है। यह जो पीछे आती है । इस कारण सुख-दुख आदि भोगने वाले, . दशा कही है, जैनदर्शन उसे 'कर्म' कहता है, वेदाउससे निवृत होनेवाले, विचार करनेवाले प्रेरणा न्त दर्शन उसे 'भ्रांति' कहता है, और दूसरे दर्शन करनेवाले इत्यादि भाव जिसकी विद्यमानतासे भी इसीसे मिलते जुलते इसी प्रकारके शब्द कहते अनुभवमें आते हैं, ऐसी वह आत्मा मुख्य चेतन हैं। वास्तविक विचार करनेसे आत्मा घट पट (ज्ञान) लक्षणसे युक्त है। और उस भावसे आदिका तथा क्रोध आदिका कर्त्ता नहीं हो सकती, (स्थितिसे) वह सब कालमें रह सकनेवाली वह केवल निजस्वरूप ज्ञान-परिणामका ही कर्ता 'नित्यपदार्थ' है। ऐसा मानने में कोई भी दोष है-ऐसा स्पष्ट समझमें आता है। अथवा बाधा. मालूम नहीं होती, बल्कि इससे सत्य (३) अज्ञानभावसे किए हुए कर्म प्रारंभकालसे के स्वीकार करने रूप गुणकी ही प्राप्ति होती है। बीजरूप होकर समयका योग पाकर फलरूप वृक्षके
. यह प्रश्न तथा तुम्हारे दूसरे बहुतसे प्रश्न इस परिणामसे परिणमते हैं; अर्थात् उन कर्मोको तरहके हैं कि जिनमें विशेष लिखने, कहने और आत्माको भोगना पड़ता है। जैसे अग्निके स्पर्शसे समझानेकी आवश्यकता है। उन प्रश्नोंका उस उष्णताका सम्बन्ध होता है और वह उसका प्रकारसे उत्तर लिखा जाना हालमें कठिन होनेसे स्वाभाविक वेदनारूप परिणाम होता है, वैसे ही प्रथम तुम्हें षदर्शनसमुख्य ग्रन्थ भेजा था, जिसके प्रात्माको क्रोध आदि भावके कर्त्तापनेसे जन्म, बाँचने और विचार करनेसे तुम्हें किसी भी अंशमें जरा, मरण आदि वेदनारूप परिणाम होता है। समाधान हो; और इस पत्रसे भी कुछ विशेष अंश इस बातका तुम विशेषरूपसे विचार करना और