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________________ वर्ष २, किरण ६] महात्मा गान्धीके २७ प्रश्नोंका श्रीमद् रायचन्दजी द्वारा समाधान उस संबन्ध में यदि कोई प्रश्न हो तो लिखना। संतोष रखने जैसा होता है। तथा जगत्का नाम क्योंकि इस बातको समझकर उससे निवृत होने- ईश्वर रखकर संतोष रख लेने की अपेक्षा जगतको रूप कार्य करनेपर जीवको मोक्ष दशा प्राप्त होती है। जगत कहना ही विशेष योग्य है । कदाचित २ प्रश्नः-श्वर क्या है ? वह जगत्का परमाणु, आकाश पारिको नित्य मानें और ईश्वरकता है, क्या यह सच है ? को कर्म मादिके फल देनेवाला मानें, तो भी वह उत्तरः-(१) हम तुम कर्म बंधनमें फँसे बात सिद्ध होती हुई नहीं मालुम होती। इस रहने वाले जीव हैं। उस जीवन वाले जीव है। उस जीवका सहज स्वरूप विषय पर षदर्शन समुच्चयमें श्रेष्ठ प्रमाण दिये है। अर्थात् कर्म रहितपना-मात्र एक आत्म स्वरूप- ३. प्रश्न:-मोक्ष क्या है ? जो स्वरूप है, वही ईश्वरपना है । जिसमें ज्ञान उत्तरः-जिस क्रोध आदि प्रज्ञानभावमें देह आदि ऐश्वर्य हैं वह ईश्वर कहे जाने योग्य है और आदिमें मात्माको प्रतिबंध है,उससे सर्वथा निवृत्ति वह ईश्वरपना आत्माका सहज स्वरूप है । जो होना-मुक्ति होना-उसे ज्ञानियोंने मोक्ष-पद कहा स्वरूप कर्मके कारण मालूम नहीं होता, परन्तु उस है। उसका थोडासा विचार करनेसे वह प्रमाणभूत कारणको अन्य स्वरूप जानकर जब आत्माकी मालूम होता है। ओर दृष्टि होती है, तभी अनुकर्मसे सर्वज्ञता आदि ४. प्रश्न:-मोक्ष मिलेगा या नहीं क्या यह ऐश्वर्य उसी प्रात्मामें मालम होता है। और इससे इसी देहमें निश्चितरूपसे जाना जा सकता है ? विशेष ऐश्वर्ययुक्त कोई पदार्थकोई भी पदार्थ- उत्तरः-जैसे यदि एक रस्सीके बहुतसे बंधनोंदेखने पर भी अनुभव में नहीं आ सकता । इस से हाथ बांध दिया गया हो, और उनमेंसे क्रमकारण ईश्वर आत्माका दूसरा पर्यायवाची नाम है; क्रमसे ज्यों ज्यों बंधन खुलते जाते हैं त्यो त्यों उस इससे विशेष सत्तायुक्त कोई पदार्थ ईश्वर नहीं है बंधनकी निवृत्तिका अनुभव होता है, और वह इस प्रकार निश्चयसे मेरा अभिप्राय है। रस्सी बलहीन हो कर स्वतन्त्रभावको प्राप्त होती (२) वह जगतका की नहीं; अर्थात् है, ऐसा मालूम होता है-अनुभवमें आता है; उसी परमाणु आकाश आदि पदार्थ नित्य ही होने संभव तरह आत्माको अज्ञानभावके अनेक परिणामरूप हैं; वे किसी भी वस्तुमेंसे बनने संभव नहीं। बन्धनका समागम लगा हुआ है, वह बन्धन कदाचित् ऐसा माने कि वे ईश्वरमेंसे बने हैं तो ज्यों-ज्यों छूटता जाता है, त्यों-त्यों मोक्षका अनुभव यह बात भी योग्य मालूम नहीं होती, क्योंकि यदि होता है । और जब उसकी अत्यन्त अल्पता हो ईश्वरको चेतन मानें तो फिर उससे परमाणु जाती है तब सहज ही प्रात्मामें निजभाव प्रकाशित आकाश बगैरह कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? क्योंकि होकर अज्ञानभावरूप बंधनसे छट सकनेका अबचेतनसे जड़की उत्पत्ति कभी संभव ही नहीं होती सर आता है, इस प्रकार स्पष्ट अनुभव होता है। यदि ईश्वरको जड़ माना जाय तो वह सहजही तथा सम्पूर्ण आत्माभाव समस्त अज्ञान आदि अनैश्वर्यवान ठहरता है । तथा उससे जीवरूप भावसे निवृत्त होकर इसी देहमें रहने पर भी चेतन पदार्थकी उत्पत्ति भी नहीं हो सकती यदि आत्माको प्रगट होता है, और सर्व सम्बन्धसे ईश्वरको जड़ और चेतन उभयरूप मानें तो फिर केवल अपनी भिन्नता ही अनुभवमें आती है, जगत् भी जड़ चेतन उभयरूप होना चाहिये। फिर अर्थात् मोक्ष-पद इस देहमें भी अनुभवमें आने तो यह उसका ही दूसरा नाम ईश्वर रखकर योग्य है। (अगली किरण में समाप्त)
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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