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अनेकान्त
[आषाढ़,वोर-
निर्वाण सं०२४६५
कितना अच्छा अवसर है ! अगर हम इन्द्रदत्तको बदले जैसे उसका मुंह माशा-निराशाका निवास भवन बना में देकर इतनी विभूति पा सकें तो क्या-से-क्या हो दिया गया हो! सकते हैं क्यों ? हैन यही...?
_ 'मैं अपने इस पुत्रको देकर यह अपरमित-धनबी ने देखा-- भविष्यकी मधुर, सुखद-कल्पना राशि देना चाहता हूँ ! '-अ-मादर्श पिता-मुखने उसके सामने नाच रही है-कितना जुभावक कि जहरीले- शब्द उगले लेकिन उधर ब्रियमाण-हदयोंने उसके मातृत्वकी ममता भी बे-होश, संज्ञा-हीन हो रही उसे संजीवनीकी भाँति ग्रहण कर हर्ष मनाया ! है ! उसने मंत्र-मुग्धकी तरह कहा- 'हाँ!'
"मौर..? - शर्माजीका मार्ग जैसे प्रशस्त हुमा--अब उनकी और दूसरी ही मिनट रथमें-उस निर्जीव, किन्तु भावनामों को दौड़ने के लिए कानी गंजाइश थी ! बहुमूल्य मूर्तिके स्थान पर बैठा था- सश्रृंगार वनाबोले, सुशीके बोझसे दबे हुए--स्वरमें !-
भूषण पहिने--इन्द्रदत्त ! ___ 'कितना धन है--वह ! कुछ ठीक है ? जीवन रथ चला !-- दुर्ग द्वारकी भोर ! सबके मुख पर एक दूसरे प्रकारका हो जायेगा, दिन चैनसे कटेंगे! प्रसन्नता थी ! जैसे उलझी हुई गंभीर समस्याका हल,
और पुत्रकी क्या है ?-अगर हम-तुम सही-सलामत उन्हें विजयके रूपमें मिल गया हो, या मिली हो रहे तो-हर साल प्रसूति ! हर वर्ष बच्चे !!...' उद्देश्यको भाशातीत-सफलता !
दोनों खुश ! अतीव प्रसा!
इन्द्रदत्तने सुनी- बातें ! तो सोचने लगा, दुर्ग-द्वारके समीप ! - छोटा-सा बच्चा, दार्शिनिककी तरह ! - 'वाहरे- अपार जन-समूह ! विचित्र कौतु-हल और गंर्भर.. लोभ ! आश्चर्य उपस्थित कर दिया तूने ! कैसी निनाद !... और था-- एक निरपराध-बेकुसूर-- विडम्बना है ?-- कैसी महत्ता है संसारकी ?... पिता ब्यक्तिकी बलिका पूर्ण आयोजन ! पुत्रको बेचता है, मौतके हाथ, धनके लिए ! म बन्न सभी उपस्थित थे !- प्रोहित, पण्डे, पुजारी, मातृत्व भी कुछ नहीं ठहरता । जो कुछ है--. स्वार्थ ! इन्द्रदत्त और उसके माता-पिता ! तथा समस्त नागरिक केवल स्वार्थ !!'
पंच! महाराज भी विराजे हुए थे--एक मोर ! नित्या"वरदत्त भावाज़ देता है, मुक्त-कण्ठसे- स्थ- पेक्षा कुछ अधिक-गंभीर ! या कहें उदास ! उनकी इच्छा संचालकोंको रथ रुकता है ! खौट कर भाता है विरुख एक सुवासित, विकसोन्मुख-फूलको मसला जा उसके दवाजे पर ! उसे समझता है वह गौरव, दुर्लभ- रहा था, यह था उनकी उदासीका सबब ! महोभाग्य ! इतनी विभूति, इतने माननीय-प्रतिष्ठित- नियमानुसार काम चल रहे थे ! कि अचानक पुरुष उसके द्वार पर खड़े हैं, क्या इसे कम सौभाग्य महारानकी एष्टि जापनी इन्द्रदत्त पर !-- बात समझ-- वह ?--- और समझे भी तो क्यों ? यह हँस रहा था ! जबकि सभी अधिकारीजन उसके मुँहकी भोर देख क्यों...?--मत्यु गोद फैलाये प्रतिपख बढ़ती चली रहे है--विदेखें क्या भाती है--माशा या निराशा- भारही है ! इतना समीप भा चुकी है कि एक कदम