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वर्ष २, किरण ६]
अहिंसा परमोधर्मः
की प्रशंसनीय-कलाका प्रदर्शन था । और थी समृद्धि- पर भरोसा कर, कार्य अपने हायमें लिया वह धोखा शालियोंकी उदारताका परिचय!
दिये जा रही है।' एक भव्य-रथमें उसे स्थित किया गया ! और रथ रथके लिए अभी थोड़ा क्षेत्र और शेष था ! वह चला नगर परिक्रमाके लिए! सभी प्रतिष्टित-जन साथ आगे बढ़ा-अपनी प्रारम्भिक गतिके अनुसार! थे!
___ सामने थे, नारकीय-जीवन बितानेवाले निर्धनोंके आगे आगे घोषणा होतीजाती--सरस और उतंग- मोहल्ले ! दरिद्र नेत्रोंके लिए धन-राशि देखना तक स्वरमें !-'इस मूर्तिको लेकर जो अपना जीवन देना दुरीह ! 'सब, एकटक रथकी ओर देखने लगे। अपूर्व चाहे वह सामने आए !'...
अवसर था उनके लिये ! घोषणा सुनी! मन तो खल___कुछ मूर्तिको देखते, प्रसन्न होते और बस ! कुछ चाया भव्यमूर्ति के लिए, लेकिन जीवन-माना कि प्रमोदी-जिनपर लक्ष्मीकी कृपा थी-मूर्तिको खरी- नारकीय था, भार-रूप था-देना उन्हें भी न रुचा! दनेके लिए व्यग्र हो उठते ! लेकिन जैसे ही उसके मूल्य पता नहीं, उस कष्ट-पूर्ण घड़ियोंसे उन्हें क्यों मोह था, पर ध्यान जाता, दृष्टिको सीमित कर, दसरी योर क्यों ममत्व था? मुखातिब होते ! और रथ आगे बढ़ता !...
-और दिन छिपने लगा, रथ आगे बढ़ने लगा! कौन ख़रीदता इनना मॅहगा सौदा ? विपुल-धन-राशि और जीवन !!!
उसी नरक-कुण्ड में एक कोना उसका भी था! नाम हाँ, जीवन ! वही, जिसके लिए घणितसे पणित था-वरदत्त शर्मा! जिन्दगी-भर परेशानियों और प्रभाकर्म, सहर्ष कर लिए जाते हैं ! अच्छे-अच्छे सभ्य जिसके वोंसे लड़ने वाला वह एक गृहस्थ था ! जैसी कि विषमता लिए धूर्ती-लम्पटोंकी सिजदा-बन्दना-करते नहीं
प्रायः दृष्टिगत होती रहती है कि समृद्धिशाली प्रयत्नशर्माते ! जो संसारकी सबसे बड़ी-क्रीमती-वस्तु पूर्वक भी पिता नहीं बन पाते और जिनके पास प्रभातहै ! वही जीवन था उसका-मूल्य !
भोजनके बाद, सान्ध्य-भोजनकी सामग्री भी शेष नहीं, नगरके प्रायः सभी पथ, रथके पहियोंसे अङ्कित हो
न
वह
वह व्यक्ति रहते हैं समय-अ-समय कीड़े-मकोड़ोंकी चके ! शाम होने पाई. किन्तु सौदा न पटा ! किसीके तरह उत्पन्न होनेवाले बच्चोंसे परेशान !" पास एकसे अधिक-ममत्व हीन-जीवन था ही नहीं तो ग़रीब बरदत्तके एक नहीं, दो नहीं—पूरे सात जो देता ! जो था, वह उसे इस विपुलधन राशिसे भी
सर पुत्र थे ! छोटे पुत्रका नाम था-इन्द्रदत्त!
पुत्र अधिक मूल्यवान जैचा ! जैसे 'जीवन' ख़रीदनेके लिए
जैसे ही रथ उसके घरके पाससे निकला और इतना द्रव्य कुछ है ही नहीं!...
सूचनासे वह परिज्ञानित हुआ कि भागा घरको ! अधिकारी-व्यक्तियोंकी 'पाशा' जैसे दिनके साथ
स्त्री भी ललचाई-नज़रोंसे रथको देख कर भभी साथ ही अस्त होने लगी ! दिवाकरकी तरह मुख- ही दर्वाज़ेसे हटी थी ! कि सामने उसके पति ! मण्डल होगये निस्तेज! हृदय में एक पीडा-सी उत्पीडन बोली- 'क्यों ।' देने लगी।–'अब क्या करना चाहिए, जिस शक्ति सुना नहीं देखा नहीं ?--किमान हमारे लिए