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. अनेकान्त
[अाषाढ़, वीर-निर्वाण सं० २४६५
सोचने लगे-'अब ?-एक ओर प्रजाका भाग्रह है, अपनी ग़रीब-प्रजाकी अभिलाषाको वियोगाग्नि द्वारा दूसरी भोर घोर-पाप ! और निर्णय है मेरे अधीन- न दहकाइए--महाराज !' जिसे चाहूँ अपनाऊँ ! कठिन समस्या है ! 'भाग्रह' की महाराज मौन! रखाके लिए मुझे पाप करना होता है ! पुत्र-सी प्रजाके फिर धीरेसे बोले--'तो' एक बेगुनाहका खून बहाना पड़ता है ! नारकीय-कर्म- इस 'तो?' ने प्रतिनिधियोंका बढ़ाया साहस ! को-मनुज्यताके सन्मुख- तरजीह देनी होती है ! वह बोले--'प्रजाकी पुकार पर ध्यान देना आप जैसे और उधर-एक महान पापसे पारमाको बचाया जाता न्यायाधीशोंका ही काम है ! महाराज, भाप जिसे पाप है ! वीरत्वकी महानताको अक्षुण्ण रखा जाता है ! कह रहे हैं, हम उसे प्रजाकी भलाई समझ रहे हैं ! अनधिकार चेष्टा, राक्षसी-वृत्तिसे मुंह मोड़कर मानवी- इतना ही फ़र्क है। अतः प्रजा-हितके लिए उस यता और स्व-धर्मका सन्मान किया जाता है।' 'उपाय'की सारी ज़िम्मेदारी हमारे ऊपर! आप निश्चिन्त
-और आखिर महाराजका धर्म-पूर्ण, न्यायी-हृदय रहें हम सब-व्यवस्था कर लेंगे। आपसे कोई वास्ता 'निश्चय' पर रद रहता है !
नहीं ! 'मेरा नगर-प्रवेश एक ऐसी समस्यामें उलझा हुआ महाराजने उदास-चित्त हो कहा--- कि उसे मैं समर्थ होते भी नहीं सुलझा सकता!'- 'लेकिन....."पाप"....!' । महाराजने संक्षेपमें कहा ।
अविलम्ब-उत्तर मिला-'वह भी हमारे सिर! वे लोग तो चाहते ही थे कि महाराज कुछ अपने पुण्यके मालिक आप और पापके हम ! बस...! मुँहसे कहें तो अवसर मिले । बोले
___ महाराज चुप ! कैसी विडम्बना है ? फिर बोले'हम लोग उस 'समस्या' से अविदित हो सो 'तुम जो समझो करो ! मुझसे कोई सरोकार नहीं !' बात नहीं ! हमें उसका पूरा ज्ञान है । और सब सोचनेके बाद--जिस नतीजे पर पहुंचे हैं वह यही है कि आपको वह उपाय करना ही चाहिये ?...'
लोभको प्रोत्साहन देनेके लिये एक तरकीब निकाली ___ 'करना ही चाहिए ?--मुझे एक निरपराधके विक- गई ! जीवन जो मोल लेना था-पशु-पक्षियोंका नहीं, सित-जीवनका अन्त ! उसके गर्म-रक्तसे दुर्ग-द्वारको मनुष्यका ! उसी मनुष्यका जो ज्ञान रखते हुए भी दूसरे सुद्ध ? और अपने कल्याण-कारी-धर्मका ध्वंस ? नहीं, प्राणोंको ले लेनेमें अनधिकार चेष्टा नहीं समझता ! मैं ऐसा नहीं कर सकता !: 'कोई भी प्रास्म-सुखा- जो अपने ही सुखको सुख समझनेका भादी होता भिलाषी हिंसा जैसे जघन्य-पाप को नहीं कर सकता!... है!... मेरा राज्य रहे या जाए, मुझे इसकी चिन्ता नहीं!...'- बनाई गई एक स्वर्णकी मनुष्याकार मूर्ति ! फिर किया ____ लेकिन इसकी चिन्ता हमें है ! हम अपने प्यारे, गया उसका शृंगार, जवाहरातके क्रीमती अलंकारोंसे ! प्रजा-प्रिय, न्यायवान शासककी छायाको अपने ऊपरसे कैसी मनोमुग्धता थी उसमें ! कि देखते ही हृदय नहीं उठने दे सकते ! इसीलिए प्रार्थना है-'भाप उसे पास रखने के लिए लालायित हो उठता ! कलाकार
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