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वर्ष २, किरण ]
अहिंसा परमोधर्मः
रखा नहीं कि इन्द्रदत्तका अस्तित्व-स्वप्न ! फिर हँसने- 'महाराज दम-साधे सुनने लगे ! बाखककी बातों में का कारण ?."ऐसा साहसिक, धैर्यवान बालक !'- बहुत-कुछ तथ्य उन्हें दिखखाई देने लगा!-- महाराजके हृदय पर एक छाप-सी लगी ! बैठे न रह 'पुत्रके सबसे पहिले संरक्षक होते हैं, उसके मांसके ! उठे ! बालकके समीप जा पहुँचे बोले:--'बच्चे! बाप ! फिर नागरिक-पंच ! इसके बाद-संरकत्वका क्यों हँसता है ? क्या तुझे मृत्युका डर नहीं ?' भार होता है--राजाके उपर !' __ 'डर ? महाराज ! दूर रहता है तभी तक उसका 'ठीक कहते हो बेटे !'--महाराजकी माँखें गीली डर लगता है ! जैसे-जैसे पास आता है डर भागता हो भाई !
बालक कहता गया--जब माँ-बापने धनलोभसे 'तो तुझे अब कोई दुख नहीं ?'
मुझे मरने के लिए बेच दिया ! उत्तर-दायित्वको ठुकरा 'दुख...'–बालक थोदा हँसा, फिर बोजा- दिया स्वाभाविक प्रेमको नृशंसता-पूर्वक काट गला! 'प्रजापति ! दुख जब सीमा उलंघ जाता है, तब दुखी. तब ?--तब सहारा लिया जा सकता था-पंचोंका ! मनुष्य उसे 'दुख' न कहकर उसका नाम 'सन्तोष' रख लेकिन मैंने देखा--पंचलोग स्वयं खरीदार है, वही मेरी देता है !'
असामयिक मृत्यु के दलाल है ! तो मैं चुप, उनके साथ महाराजका दयाई-हृदय मन-ही-मन रो उठता है चला पाया ! ख़याल किया-बस, अन्तिम-अवलम्ब-- 'यह कुसुम, मुरझानेके लिए पैदा हुआ है ?'- भारिखरी-भाशा--राजाका न्याय है,जो वह करे यह ठीक' ____ बच्चे...!'-महाराजने वात्सल्यमयी स्वरमें कहा 'सच कह रहे हो--बालक ! यही सोच सकते थे
-'क्या तू नहीं जानता कि यह समय हँसनेका नहीं, तुम !'-महाराजकी भाँखोंसे दो-द माँसू दुलक पड़े! रोनेका है?'
हृदयमें बालकके लिए श्रद्धा-सीउमद पदी ! 'जानता कृपा-निधान! लेकिन अब मेरे रोने बालकने हृदयोदगारोंका क्रम-भंग न होने दिया! और हँसनेमें कोई विशेषता नहीं...'-बालकने सरलता शायद सभी साफ-साफ कह देना उसने प्रण बमाखिया से उत्तर दिया।
होमपना-- ____ 'फिर भी रोया तो जाता ही है ऐसे समयमें किन्तु यहाँ भाकर देखने में माया, कि सारे यंत्रोंपाषाण-हृदय भी बौर रोये नहीं रह पाता ! फिर तू का संचालन महाराजकी प्रेरक-पुद्धिके द्वारा ही हो रहा -एक कोमल-बालक ही तो है!'
है! वह अपने दुर्ग द्वारको स्थिर देखनेकी मालपा'अवश्य ! लेकिन रोना भी तभी भाता है, जब तृसिके लिए--एक प्रजा पुत्रकी माहुति देने पर तुले कोई हमदर्द दीखता है ! कहीं सहानुभूति दिखलाई बैठे है !' देती है! अब मैं रोऊँ तो-क्यों? मेरी मर्याद-मेरी महाराज सब रह गए! उनका गंभीर स्वाभिमान पुकार-मेरी पीडाका सुननेवाला ही कौन है, जिसे तिलमिला उठा ! चेष्टा करने पर भी एक-शब्द उनके सुनाने के लिए रोया जाय ? जो मेरे रोने पर द्रवित हो! मुँहसे न निकला ! भूमि पर लगी हुई भालें, सावनमेरी रक्षाकी चेष्टा करे ....'
की बदली बन गई !