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________________ वर्ष २, किरण १० ].... . सिद्धसेन दिवाकर ज्ञान-केवल दर्शन को एक ही उपयोग माना है; जबकि . अर्थात्-पुरातनोंने यदि विषम भी-युक्तिविरुद्ध बागममें दोनों उपयोगोंको ‘क्रमभावी' माना है। इस भी कथन किया हो तो भी उसकी प्रशंसा ही की जाती सम्बन्धमें इन्होंने तर्कके बलपर कर्म-सिद्धान्तके आधारसे है और यदि प्राजके (वर्तमानकालके मेरे जैसे द्वारा) क्रमभावी और सहभावी पक्षका युक्तिपूर्वक खंडन करके मनुष्यके द्वारा कही जानेवाली युक्तियुक्त सत्य बात भी दोनोंको एक ही सिद्ध कर दिया है। नहीं पढीजाती है तो यह एक प्रकारका स्मृतिमोह अर्थात् मिथ्यास्त्र वा रूदि-प्रियता ही है। कुछ उक्तियाँ परेच बातत्व किनाच पुक्तिमत्, सिद्धसेन दिवाकरके स्वभावसिद्ध तेजस्विताके परि- पुरातनाना किन दोपद्वचः । चायक, प्राकृतिक प्रतिभाके सूचक, निर्भयता तथा तर्क- किमेव जाल्मः कृत इत्युपेपितु. संगत सिद्धान्तोंके प्रति उनकी दृढ़ताके द्योतक कुछेक प्रपशनापास्य बनस्य सेस्पति ॥ श्लोक निम्न प्रकारसे हैं । इन श्लोकोंसे मेरे उस अनुमान अर्थात्-'पुरातनोंका कहा हुआ तो दोषयुक्त है की भी सिद्धि होती है, जो कि मैंने इनके संघनिष्कासन और कलके उत्पन्न हुोका कथन युक्ति संगत है' ऐसा और विरोधके संबन्धमें ऊपर अंकित किया है:- कहना मूर्खतापूर्ण है। इन (सिद्धसेन आदि ) की तो जनोऽयमन्यस्यमृतः पुरातनः, उपेक्षा ही करनी चाहिये । इस प्रकार उपेक्षा करनेवाले पुरातनैरेव समो भविष्यति। रूढ़ि-प्रिय मनुष्यों के प्रति सिद्धसेन दिवाकर लोककी पुरातनेषु इति प्रमवस्थितेषु, चतुर्थ पंक्ति में कहते है कि इस उपेवासे तो हम मनुष्य+ पुरातनोवानि अपरीच्य रोचयेत् ॥ (सिद्धसेन ) के विचारोंका ही प्रचार होगा।' अर्थात्-पुरातन पुरातन क्या पुकारा करते हो? इन श्लोकोंमे यह साधार अनुमान किया जा सकता यह मनुष्य (सिद्धसेन दिवाकर) भी मृत्यु के पश्चात् कुछ है कि सिद्धसेन दिवाकरका ईर्षावश, प्रतिस्पर्धावश और समयान्तरमें पुरातन हो जायगा । तब फिर अन्य पुरा- रूढ़ि-प्रियताके वश अवश्य ही निन्दात्मक विरोध, तथा तनोंके समान ही इसकी मी (सिद्धसेन दिवाकरकी भी) तिरस्कार किया गया होगा । अतः यह संभावना तथ्यगणना होने लगेगी। इस प्रकार इस अनिश्चित् पुरा. मय हो सकती है कि इन तिरस्कार और विरोधका तनताके कारण कौन ऐसा होगा, जो कि बिना परीक्षा सामजस्य उपर्युक्त दंतकथाके रूपमें परिणत कर लिया किये ही केवल प्राचीनताके नामपर ही किसी भी सिद्धान्त. गया होगा जो कुछ भी हो, किन्तु इन सबका मारांश को सत्य स्वीकार कर लेगा ! अर्थात् कोई भी समझदार यही निकाला जा सकता है कि प्राचार्य सिद्धसेन दिवाआदमी ऐसा करनेको तैयार नहीं होगा। कर सुधारक, समयश दूरदशी, तप्रधानी, जैनधर्मके बदेव चित्रित विमखिलं, प्रभावक और निनःशासनके सरे और बुद्धिमान संरक्षक पुरातने पामिति प्रायते । विविरिवाज्य मनुवागाति, 'संरक्षक' के पहले 'बुद्धिमान्' शब्द इसलिये लगाना परते स्मृतिमाह एस. पड़ा है कि उस समयका अधिकांश साधुवर्ग और
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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