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________________ अनेकान्त [प्रथम भावब, वीर-निर्वाणसं०२४६५ श्रावकवर्ग केवल 'मूल-सूत्त-पाठ' करने में ही और टीकामय कृतियोंमेंसे एक तो सम्मति तर्क है और शिष्योंका परिवार बढ़ाने में ही (चाहे वह मूर्खही क्यों न दूसरी न्यायावतार । इनके अतिरिक्त उपलब्ध बतीसियोंहों) जैन धर्मकी रक्षा कार्यकी समाप्ति समझ बैठा था। मेंसे किसी पर भी व्याख्या, टीका या भाष्य तो दूर रहा किन्हीं किन्हींकी ऐसी धारणा भी थी कि केवल रुदि- किन्तु 'शब्दार्थमात्रप्रकाशिका' जैसी भी कोई टीका नहीं अनुसार “सिद्धान्तज्ञ" बन जाना ही जिन-शासनकी पाई जाती है। इसका कारण कुछ समझमें नहीं आता रक्षा करना है। है। इनकी टीका रहित बतीसियाँ निश्चय ही महान् कोई कोई तो यही समझते थे कि अनेक प्रकारका गंभीर अर्यवाली और अत्यन्त उपादेय तत्वोंसे मरी हुई बाडम्बर दिखलाना ही जिन-शासनकी रक्षा करना है। है। इनकी भाषा भी कुछ क्लिष्ट और दुरूह अर्थ इसप्रकारकी सम्पूर्ण मिथ्या मान्यताओंके प्रति वाली है। इनकी इस प्रकारकी भाषाको देखते हुए सिद्धसेन दिवाकरने विद्रोहका कपडा उठाया था और इनका काल चौथी और पाँचवीं शताब्दिका ही ठहरता गौरवपूर्ण विजय प्राप्त की थी। दिवाकरजीने लिखा है कि जो कोई (जैन साधु) संस्कृत साहित्यमें ज्यों ज्यों शताब्दियाँ व्यतीत बिना ममनके ही अनेक ग्रन्थोंका अध्ययन करके अपने होती गई हैं; त्यो त्यो भाषाकी दुरूहता और लम्बे लम्बे आपको बहु-श्रुति मान लेते हैं, अथवा जो कोई अनेक समास युक्त वाक्य रचनाकी वृद्धि होती गई है । शिष्योंके होने परही एवं जन साधारण-द्वारा तारीफ उदाहरण के लिये क्रमसे रामायण, महाभारत, भासके किये जाने पर ही अपने आपको "जिन-शासन-संरक्षक" नाटक, कालीदासकी रचनाएँ, भवभूतिके नाटक, बाण मान लेते हैं निश्चय ही वे उल्टे मार्ग पर हैं। वे शास्त्र में की कादम्बरी, भारवी, माघ और हर्षके वाक्योंसे मेरे स्थिर बुद्धिशाली न होकर उल्टे सिद्धान्त द्रोही हैं। उपर्युक्त मन्यव्यकी पूरी तरहसे पुष्टि होती है। ऊपरके इस दृष्टि से "बुद्धिमान्" शब्द वहाँ पर सार्थक है। उदाहरण कालक्रमसे लिखे गये हैं और प्रत्येकमें उत्तरोऔर इस बातका द्योतक है कि पुराण पंथियोंका महान् त्तर भाषाकी क्लिष्टता और अर्थकी दुरूहताका विकास विरोध होने पर भी प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर अपने होता चला गया है । इसी प्रकार जैनसाहित्यमें मी विचारों के प्रति दृढ़ रहे और स्थायीरूपसे जिनशासन- उमास्वातिकी भाषा और सिद्धसेन दिवाकरकी भाषासे रक्षा, साहित्य-निर्माण, एवं दीर्घ तपस्वी भगवान् तुलना करने पर भली प्रकारसे ज्ञात हो सकता है कि महावीर स्वामीके सिद्धान्तोका प्रकाशन और प्रभावना- दोनोंकी भाषामें काफी अन्तर है । उमास्वातिका काल का कार्य अन्त तक करते रहे। लगभग प्रथम शताब्दि निश्चित हो चुका है। अतः टीकादि ग्रंथ और अन्य मीमांसा भाषाके आधारसे यह अनुमान किया जाता है कि सिद्धसेन दिवाकरका काल तीसरी और पांचवीं शतान्दिसिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित कृतियों से केवल के मध्यका होगा। दो पर ही टीका व्याख्या आदि पाई जाती हैं और भाषाकी क्लिष्टता और दुरूहताके विकासमें माषाअन्य किसी भी कृति पर नहीं, यह आश्चर्यकी बात है। विकासकी स्वाभाविकताके अतिरिक्त अन्य कारणों में से
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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