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वर्ष २, किरण १.]
सिद्धसेन दिवाकर
एक कारण यह भी होता है कि जो जितनी ही अधिक भी उल्लेख पाया जाता है और यह उल्लेख भी "पाहिक्लिष्ट, परिमार्जित, और अधिकसे अधिक अर्थ प्पणिका" नामकी प्राचीन जैन प्रथ सूचीमें 'सम्मतिगांभीर्यमय भाषा लिखता है, वह उतना ही अधिक चिरल्यानका" मात्र ही पाया जाता है। अतः इस विद्वान समझा जाने लगता है। संस्कृत भाषाके क्रमिक सम्बन्धमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। विकासके अध्ययनसे पता चलता है कि दूसरी शतान्दिसे न्यायावतार पर दो वृत्तियाँ पाई जाती है। एक तो ही संस्कृत-भाषाके विकासमें उपर्युक्त सिद्धान्त कार्य प्रसाधारण प्रतिभा संपन्न प्राचार्य हरिभद्रसूरिकी है। करने लग गया था । और यही कारण है कि संस्कृत- ये 'याकिनी महत्तरासूनु' के नामसे प्रसिद्ध है। इनका भाषाकी जटिलता दिन प्रति दिन बढ़ती ही चली गई। काल प्रसिद्ध पुरातत्त्वश मुनिराज जिनविजयजीने ७५७
सूक्ष्म-दृष्टिसे विचार किया जाय तो कालीदासकी से ८२७ विक्रम तकका निर्णीत किया है, जो कि भाषामें और सिद्धसेन दिवाकरकी भाषामें कुछ कुछ सर्वमान्य हो चुका है। कहा जाता है कि इन्होंने १४ साम्यतासी प्रतीत होगी; अतः इनका काल तीसरीसे ग्रंथोंकी रचना की थी। यह वृत्ति २०७३ श्लोक प्रमाण पाँचवींके मध्यका ही प्रतीत होता है।
कही जाती है। इसकी हस्तलिखित दो प्रतियाँ उपलब्ध सम्मतितर्क पर सबसे बड़ी टीका प्रद्युम्नसरिके हैं जो कि पार्श्वनाथ भंडार पाटण और लोदी पोशालके शिष्य अभयदेवसूरिकी पाई जाती है। इनका काल उपाभय भंडार पाटणमें सुरक्षित है; ऐसा श्वेताम्बर काँ दशवीं शताब्दिका उत्तरार्ध और ग्यारहवींका पूर्वार्ध केस द्वारा प्रकाशित “जैन-ग्रंथावली"से शात हुआ है। माना जाता है । ये 'न्यायवनसिंह' और 'तर्क पंचानन' न्यायावतार पर दूसरी वृत्तिका उल्लेख 'वृहहिप्पणि की उपाधिसे विख्यात थे। यह टीका पचीस हजार का' नामक प्राचीन जैन ग्रंथसूचिमें पाया जाता है। श्लोक प्रमाण कही जाती है। यह टीका ग्रंथ गुजरात यह कितने श्लोक संख्या प्रमाण थी. इसका कोई उल्लेख विद्यापीठ अहमदाबादसे प्रकाशित हो चुका है। इसका नहीं है। इसके रचयिताका नाम 'सिद्ध व्याख्यानिक' संपादन आदरणीय पं० सुखलालजी और पं०वेचरदास- लिखा हुआ है। 'जैन-ग्रंथावलि' के संग्रहकारका अनु. जीने घोर परिश्रम उठाकर किया है।
मान है कि ये सिद्धब्याख्यानिक मुनिराज सिवार्षिही 'सम्मति तर्क' पर दूसरी वृत्ति प्राचार्य मल्लवादी- जिन्होंने कि "उपमितिभवप्रपंच" जैसा अद्वितीय रूपक की कही जाती है, जिसकी श्लोक संख्या ७०० प्रमाण हिप्पविकाका पहगोवसम्मति विवरण थी; ऐसा उल्लेख बहटिप्पणिका नाम प्राचीन जैनग्रंथ
नामकी उस दिगम्बर टीकासे सम्बन्ध रखता मा बाम
पड़ता है,बिसे प्राचार्य 'सन्मति'ने बिना और सूचिमें पाया जाता है। वर्तमानमें यह वृत्ति अलभ्य
जिसका पता पारनाथचरित' में दिए बादिराजहै। प्राचार्य मल्लवादीने यह वृत्ति लिखी थी, इसका सूरिक निम्नवायसे भी पताउल्लेख महान् प्रभावक श्राचार्य हरिभद्रसूरिने अपने नमा मम्मतपेतस्मैमवामिपातिनाम् । 'अनेकान्त जयपताका' में और उपाध्याय यशोविजय
सम्मातेर्विवृतयेन सुबधाम प्रवेशिनी ॥२॥
पंडितबी सुनवाब और चरदासजीने भी सन्मजीने अपनी 'श्रष्ठ-सहस्रीटीका' में भी किया है। सम्मति
तितकी प्रस्तावनासबासको स्वीकार किया। तर्क पर इन दो टीकात्रोंके अतिरिक एक तीसरी वृत्तिका