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________________ ५७२ -अनेकान्त [प्रथम श्रावण, वीर-निर्वाण सं०२४६५ अन्य लिखा है। और उपदेशमाला पर सुन्दर टीका इतिहास' और 'भारतीय राजनैतिक इतिहास' आदि लिखी है। बारहवीं शताब्दिमें होने वाले, रत्नाकरावता- अनेक प्रकारके इतिहासोंकी सामग्री भरी पड़ी है। रिका नामक न्यायशास्त्रकी कादम्बरी रूप ग्रंथके लेखक इस अपेक्षासे अनेक भारतीय और पाश्चात्य विद्वान् रत्नप्रभसूरिने सिद्धर्षिके लिये 'व्याख्यात-चड़ामणि' का जैन-साहित्यको बहुत ही श्रादरकी दृष्टिसे देखने लगे विशेषण लगाया है। यह वृति अलभ्य है। सिद्धषिका है और पढ़ने लगे हैं। फिर भी सत्यकेतु विद्यालंकारके काल विक्रम ६६२ माना जाता है। शब्दों में यह कहा जा सकता है कि 'ऐतिहासिक विद्वानों न्यायावतार पर देवभद्र मलधारि-कृत एक टिप्पण ने जैन-दर्शन और जैन-साहित्य के प्रति उसके अनुरूप भी पाया जाता है । यह ६५३ श्लोक प्रमाण कहा न तो आदर ही प्रदर्शित किया है और न उसके ग्रंथोंका जाता है और सुना जाता है कि पाटणके भंडारोंमें गंभीर अध्ययन और मनन ही। इसमें जैनसमाजका भी है । देवभद्र मलधारीकी तेरहवीं शताब्दि कही जाती कुछ कम दोष नहीं है। उसने अपने साहित्यका न तो है। इन्होंने अपने गुरु श्री चन्द्रसूरि कृत 'लघुसंग्रहणी' विपुल मात्रामें प्रकाशन ही किया है और न प्रचार ही। पर भी टीका लिखी है। यही समाजकी सबसे बड़ी त्रुटि है। क्या जैनसमाज सिद्धसन दिवाकरकी ऊपर लिखित कृतियोंके इस अमूल्य साहित्यको प्रकाशित करनेकी और इसकी अतिरिक्त और भी कृतियाँ थीं या नहीं; इस सम्बन्धमें रक्षा करनेकी ओर ध्यान देगा? और कुछ नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि इन द्वारा किंवदन्तीमें यह उल्लेख आया है कि 'कल्याणरचित अन्य कृतियोंका और कहीं पर भी कोई उल्लेख मंदिर' स्तोत्र सिद्धसेन दिवाकरकी ही कृति है । यह नहीं पाया जाता है। यदि लिखी भी होंगी तो भी या तो कथन"प्रभावक चरित्र"नामक ग्रंथमें पाया जाता है। नष्ट हो गई होगी या किन्हीं अज्ञात् स्थानों में नष्टप्राय कल्याणमंदिरके अंतिम श्लोकमें काके रूप में अवस्था में पड़ी होंगी। "कुमुद्रचन्द्र" नाम देखा जाता है। प्रभाविकचरित्रमें जैन-साहित्यकी विपुलताका यदि हिसाब लगाया यह देखा जाता है कि इनके गुरु वृद्धवादि श्रादि सूरिने जाय तो यह कहा जा सकता है कि इसकी विस्तृतता इन्हें दीक्षा देते समय इनका नाम "कुमुद्रचन्द्र" रक्खा अरबों और खरबों श्लोक प्रमाण जितनी थी। आज भी था। यह बात कहाँ तक सत्य है ? और इसी प्रकार करोड़ों श्लोक प्रमाण जितना साहित्य तो उपलब्ध है। 'कल्याण मंदिर' स्तोत्र इनकी कृति है या नहीं, यह भी यदि मेरा अनुमान सत्य तो आज भी दिगम्बर और एक विचारणीय प्रश्न है। श्वेताम्बर ग्रंथों की संख्या-मूल, टीका, टिप्पणी,भाष्य, अन्तमें सारांश यही है कि श्वे जैनन्यायके आदि और व्याख्या आदि सभी प्रकारके ग्रंथोंकी संख्या- प्राचार्य महाकवि और महावादि सिद्धसेन दिवाकर मिलाकर कमसे कम बीस हजार अवश्य होगी। इनमेंसे जैनधर्म और जैन-साहित्यके प्रतिष्ठापक, श्रेष्ठ संरक्षक, संभवतः अधिकसे अधिक दो हजार ग्रंथ छपकर प्रकाशित दूरदर्शी प्रभावक, और प्रतिभा सम्पन्न समर्थ प्राचार्य थे। होगये होंगे । शेष अप्रकाशित अवस्थामें ही मरणासन्न 'प्राचार्य सिद्धसेन और उनकी कृतियाँ इस है। जैन-समाजका यह सर्व प्रथम कर्तव्य है कि वह शीर्षकके रूपमें प्राचार्य महोदयकी खोजपर्ण जीवनी, मूर्ति, मन्दिर, तीर्थयात्रा, और गजरथ आदिमें खर्च सम्मतितर्क न्यायावतार और अन्य उपलब्ध द्वात्रिंकम करके इस ज्ञानराशिरूप साहित्यकी रक्षाकी मोर शिकायोंके मूल पाठ उनके विस्तुत हिन्दी भाष्य सहित ध्यान दे। वर्तमान पद्धतिसे सम्पादन करके यदि एकत्र प्रकाशित ___ जैन-साहित्यमें 'भाषामोंका इतिहास', 'लिपिका किये जाएँ तो बीसवीं शताब्दीके जैनसाहित्यमें एक इतिहास', 'भारतीय साहित्यका इतिहास' 'भारतीय गौरवपर्ण ग्रंथ तैयार हो सकता । तथास्त। दार्शनिक और धार्मिक इतिहास' 'भारतीय संस्कृतिका
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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