________________
५६५
न
(प्रथम भोवण, बौर-निर्माण सं०२०१५
-
-
-
-
-
एक दूसरी किंवदन्ती इनके जीवनमें यह भी सुंनी राजा नमस्कारके लिये बार बार अाग्रह करने लगा जाती है कि कि इनके काल में संस्कृत-भाषामें ग्रंथ: इस पर सिद्धसेन दिवाकर संस्कृत भाषामें तत्काल छंदरचना करना ही विद्वत्ताका चिह समझा जाने लगा था रचना करते हुए ( श्लोक बनाते हुए ) भगवान्
और प्राकृतके ग्रंथ एवं प्राक्त भाषामें नवीन ग्रंथोंकी पार्श्वनाथकी स्तुति करमे लगे । यही स्तुति आगे रचना करना केवल बालकोंके लिये, मूखों के लिये और चलकर "कल्याणमंदिर" के नामसे प्रसिद्ध हुईभोली भाली जनताके लिये ही उपयोगी है, ऐसा समझा ऐसी अनेक व्यक्तियोंकी कल्पना है। कहा जाता है कि जाने लगा था; इसलिये इन्होंने संघके सामने यह ११ वें श्लोककी रचना करते ही मूर्तिमेंसे धनी उठने प्रस्ताव रखा कि यदि आपकी श्राज्ञा हो तो महत्वपूर्ण लगा और तत्काल मूर्ति दो भागोंमें विभाजित हो गई जैन-साहित्यका संस्कृत भाषामें परिवर्तन कर दूं । इस तथा उसमें से पार्श्वनाथकी मूर्ति निकल आई । राजा प्रकारके विचार सुनते ही श्रीसंघ एक दम चौंक उठा। आश्चर्यान्वित हो उठा और जैन धर्मानुरागी बन इन विचारों में उसे जैनधर्मके हासकी गंध आने लगी गया । बारह वर्ष समाप्त होने पर ये पुनः श्रादर
और भगवान महावीर स्वामीके प्रति और उनके सिद्धा- पूर्वक बड़े समारोहके साथ संघमें सम्मिलित किये गये। न्तोंके प्रति विद्रोहकी भावना प्रतीत होने लगी। श्रीसंघ यह उपयुक्त बात दन्तकथा ही है या ऐतिहासिक सिद्धसेन दिवाकरको “मिच्छामि दुक" कहने के लिये घटना है,इससम्बन्धमें कोई निश्चित निर्णय देना कठिन
और प्रायश्चित लेने के लिये जोर देने लगा । सिद्धसेन है; क्योंकि इसके निर्णायक कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपदिवाकरको प्राचार्यश्रीने संघकी सम्मति अनुसार बारह लब्ध नहीं हैं। यह घटना प्रभावकचरित श्रादि ग्रंथों में पाई वर्ष तक संघसे अलग रहनेका दण्डरूप आदेश दिया; जाती है, जो कि संग्रह और काध्यग्रंथ है,न कि ऐतिहाजिसको उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया।
सिक ग्रंथ । किन्तु फिर भी यह निष्कर्ष अवश्य निकाला इस घटनासे पता चलता है कि जैनजनतामें जा सकता है कि आगमिक मतानुयायियोंने इनके तर्कप्राकृत भाषाके प्रति कितनी भादर बुद्धि और ममस्व प्रधान विचारों का विरोध किया होगा तथा यह मतभेद भाव था। आज भी जैनजनताका संस्कृत भाषाकी संभव है कि कलहका रूप धारण कर गया होगा, जिससे अपेक्षा प्राकृत-भाषा (अर्धमागधी ) के प्रति अधिक संभव है कि इन्हें अन्य प्रांतोंमें विहार कर देना पड़ा ममत्वभाव और पज्य दृष्टिं हैं। ' ' होगा। और फिर कुछ काल पश्चात् संभव है कि उन ' कहा जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर वहाँसे विहार विरोधियों को इनकी आवश्यकता प्रतीत हुई हो और करके उज्जैनी पाये और इस नगरीके राजाके समीप वे पुनः आदरपूर्वक इन्हें अपने प्रांतमें लाये हों। रहने लगे । राजा शैव था । एक दिन शैव मंदिर में राजा-'- यह तो निश्चित है कि ये सर्वथा अंध विश्वासी के साथ ये भी गये, इन्होंने मूर्तिको प्रणाम नहीं किया, नहीं थे। भागमोक्त बातोको तर्ककी कसोटी पर कसकर राजा इस पर असंतुष्ट हुश्रा और बोला कि आप परखते थे और कोई बात विरोधी प्रतीत होनेपर तर्क-बलनमस्कार क्यों नहीं करते हैं ? दिवाकरजीने उत्तर दिया से उसका समन्वय करते थे। और यह पहले लिखा जा कि यह मूर्ति मेरा नमस्कार सहन करनेमें असमर्थ है। चुका है कि सम्मति सके मन प्रकरणामें हनोंने केवल