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सहासकामासा
सिद्धसेन दिवाकर
[do-4. रतनाव संपी, बापती-विवार] [भवी खिसे भागे
तात्पर्य यह था कि यदि प्रतिवादी पराजयके भवसे
प्राकारामें चला जाय तो इस निसरनीके बलसे उसे रिसेन दिवाकर जातिसे ब्रामण थे और इसलिये पका और यदि जलमें चला जाय तो इस जालकी
ये पहले वैदिक विद्वान् थे । कहा जाता है कि सहायतासे अपने वश में करलें । इसी प्रकार एक हाथमें ये विक्रम राजाके पुरोहित मंत्रीदेवर्षिके पुत्र थे। विद्वानों- कुदाली और दूसरे हाथमें पास रखते थे। जिसका यह का अनुमान है कि इनके जीवनका अधिकांश भाग मतलब था कि यदि प्रतिवादी पातालमें भी बैठ जाय तो उज्जैन (मालबा) और चित्तौड़ (मेवाड़) के प्रासपास कुदालीके सहारे उसे खोद निकाल । और परिहार ही व्यतीत हुआ है।
जाय तो हमें यह पास देकर अर्थात् दया-पात्र बना गॅस्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषणका अनुमान है कि कर बोर हूँ । इस प्रकार इनके पांडित्य-प्रदर्शनकी यह विक्रम राजाकी सभामें जो 'नवरत्न' विद्वान् थे उनमें दंतकथा सुनी जाती है। इसमें भले ही अतिशयोकि हो, 'चपणक' नाम वाले सिद्धसेन दिवाकर ही प्रतीत होते हैं किन्तु इतना तो अवश्य सत्य कहा जा सकता है कि यह अनुमान अभी खोजका विषय है, अतः का नहीं इनोंने वाद-विवादमें बहुत भाग लिया होगा, प्रतिसकते है कि यह कहाँ तक सत्य है।
वादियोंका गर्व खर्च किया होगा और अपनी अगाध सिद्धसेन दिवाकरके सम्बन्धमें यह लोक-प्रवाद विचाका गौरवमय प्रभाव अमिट रूपसे स्थापित किया चला जाता है कि हमें अपने पांडित्यका बड़ा भारी होगा। अमिमान था। ये पेट पर पही बाप कर चलते थे, कहा जाता है कि यह अपनी अहंकारमय बाम्मिता जिसका प्राशय यह था कि कहीं विद्याके. भारसे पेट के कारण तत्कालीन प्रसिद्ध जैनाचार्य भीवृद्धवादीरिफट नहीं जाय । एक कन्धे पर लंबी निरनी (सोपान- गाय वादविवाद में पयक्ति हो गये, और सदगुजर पंकिका) और दूसरे कन्धे पर जान रखते थे; जिसका दलालही नदीकालीकार कर उनके शिणन गये।