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________________ ६१६ अनेकान्त [भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं० २४६५ भनेकान्तके लेखांश पर विचार हो सकता है । 'अहिमाणेण विरइयं' और 'पग्रहसवण"जोणिपाहुड" की गाथा-संख्या ६१६ ही है या मुणिणा विरहर' ये दोनों पद परस्पर विरुद्ध है। यह कम ज्यादा, इसके कर्ता धरसेन हैं या परहसवण, यह बात खास ध्यान देने योग्य है । फिलहाल जोणिपाहुडके एक प्रश्न है ? गुजराती नोटोंके आधारसे सिद्ध होता है कर्ता परहसवण ही है ऐसा ठीक है। कि 'पएहसवण'मुनिने भूतबलि-पुष्पदंतके लिए कूिष्मांडी जोणिपाहुडका अपर-ग्रंथकतत्व देवीसे उपदिष्ट जोणिपाहुडको लिखा । परहसवणका इतने विवेचन के बाद भी हम कुछ निर्णय नहीं देअर्थ 'प्रश्नश्रवण' के बजाय 'प्रशाश्रमण' • हो तो अच्छा सकते; फिर भी जोणिपाहुड़को धरसेन-रचित ही मानें है । तब सहज ही में यह जाना जा सकता है कि या तब कहना होगा कि जगत्सुन्दरी कर्ताके गुरुके “धणेतो धरसेनका नामान्तर परहसवण हो या धरसेन और म सर" ये नामाक्षर ही तो कहीं प्रत्यंतर (दुसरी प्रति) में नमानानक ना। परहसवण दो अलग अलग आचार्य हो । और उनमेंसे उलट पुलट होकर "धरसेन" नहीं बन गये हैं। जैसे भूतबलि पुष्पदंतके सिद्धांतगुरु धरसेन और मंत्रादिके जोणिपाहुडके कर्ता 'धरसेन' समझे गये वैसे ही प्रत्यंतर गुरु पएहसवण हो। प्रबल प्रमाण के बिना बृहट्टिपणिका- में जगल्टरी मा गलतीये में जगत्सुंदरीके कर्ता ग़लतीसे 'हरिषेण' समझ गये हों। का "जोणिपाहुडं वीरात् ६०० धारसेनं" उल्लेख भी जोणिपाहुड और जगत्सुन्दरी दोनों प्राकृतप्रधान जैनग़लत कैसे कहा जासकता है, गलत हो भी सकता है वैद्यक ग्रंथ होने के कारण "पना-प्रति" जैसी ही दोनों पर जोणिपाहुडके प्राचीन होनेपर ही “धवल" में उसके ग्रंथोंकी संयुक्त अन्य प्रति लिखी गई हो और लेखकोंकी मामोल्लेख किये जानेकी संगति ठीक बैठ सकती है, । नासमझीसे कुछका कुछ समझा गया हो। अन्वया नहीं। इतना सब कुछ लिखने के बाद भी योनिपाहुडके पनावाली प्रतिमें "कुवियगुरु" गाथाकी स्थिति विषयमें तबतक मैं अपना निश्चित मत नहीं दे सकता बहुत कुछ गडबडीमें हैं, यह स्वयं संपादक महोदयने जब तक कि उसका अध्ययन न कर सकें। अपने लेखके अंतभागमें स्वीकार किया है । तब उसमें इसतरह जगत्सुन्दरीका कर्ता यशःकीर्ति है-हरिके "अहिमाणेण" पद परसे और बेचरदासजी लिखित पेण नहीं; तब इस प्राकृतग्रंथकी "इति पंडित श्री हरि'लघु' विशेषण परसे, गाथाके भूतबलि पदको छोड़कर घेणेन" श्रादि संस्कृत संधि और उसमें योनिप्रामृतके पुष्पदंत कवि ही की क्लिष्टकल्पना करना कहाँ तक संगत मलामवाली बात भी ग़लत और निःस्सार ही है, कूष्मांडीदेवी नेमिनाथकी शासनदेवी है। इंद्र म. जोकि ग्रंथकी आदि की १२ गाथाओंसे और कर्तृत्वनन्दीके अतावतारके अनुसार भूतबलि पुष्पदंतने विद्याकी भूतबनिके साथी पुष्पदन्तकी वहाँ कोई किट साधना भी की थी। हो सकता है कि कुष्मांगदेवी ही कल्पना नहीं की गई है, बल्कि अमिमानमेन नामसे उनके सामने उपस्थित हुई हो। भी भक्ति एक दूसरे ही पुष्पदन्त फक्किी कल्पना की यह माम 'प्राशभमण' भी हो सकता है। गई है, जिनका बनाया हुमा अपभ्रंश भाषाका महायह गावांश भूषवलिपुमुवंताविहिए' इस प्रकार है। पुराव है। -सम्पादक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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