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वर्ष २, किरण ११]
जगत्सुंदरी-प्रयोगमाला
तत्कालीन कथ्यभाषाका नमूना नमो पावरुद्राय" मंत्रकी संभावना होनी चाहिये । कुछ "सुल घाटी काठे मंत्र-(शाकिन्यधिकारे) शब्दपरिवर्ततनके साथ यही मंत्र मतिसागरसूरिके
कुकासु बाढहि उरामे देव कउ सुजा हासु खाडतु “विद्यानुशासन" में पाया जाता है। (सूर्यहास खग) कुकास वाढइ हाक उ कुरहाडा लोहा ५--३८वें और ४३वे अधिकारों के नाम समझमें राणउ श्रारणु वम्मी राणी काठवत्तिम साण कीधिणि जे नहीं आये। हो सकता है, अनुपलब्ध अधिकारों में गेउरिहि मंत, ते रुप्पिणिहि तोडउ सुलके मोडलं सूलु मुभिक्ष; दुर्भिक्ष, मानसज्ञानादि, व विद्याधरवापीयंत्रादि, घाटीके मोड उं घाटीतोड उं काठेके मोड उं कांठे सूलघाटी। धातुवाद और मंत्रवादका उल्लेख हो। "मंत्रवाद" नामसे कांठे मंत्र-"उड मुड स्फुट स्वाहा ।" इसके श्रागे मंत्रविषयक महान् ग्रंथ होना भी चाहिये, इसका उल्लेख कक्ख-विलाई (कांख की गांठ-काखोलाई) का मंत्र है। रामसेनके 'तत्वानुशासन' और 'विद्यानुशामन' में भी जगत्सुन्दरीके विशेष विवरण और विशेषताएँ पाया जाता है, या ये वर्णन 'जोणीहुई' के होंगे।
१-"पलितहरण" नामक ३ ३वें अधिकारमें कई ६---'ज्वालामालिनीस्तोत्र' का ग्रंथका अंगत्व । रसायन (कीमिया) के प्रयोग हैं, और उममें 'हस्ति- --+ रावणकृत 'कमारतंत्र' के अनुसार वर्णन पदक, विडालपदक, तोला, मासा, रत्ती, ये मापवाची और मुग्रीवमत व ज्वालिनीमतका उल्लेख आदि ।
शब्द आये हैं । उन प्रयोगोंको प्रायः सरस संस्कृत गद्यम वियगरु' गाथा पर विचार लिखा है और 'हिंडिका' (हांडी) जैसे कथ्यशब्द काम में कुवियगुरु पायमूले गहु बदं भनि पाहुरं गंथं । लाये गये हैं।
महिमाणेण विरहयं इस अहिवारं सुस......... । २-"कौतूहलाधिकार" नामक ३५वे अधिकारका प्रथम तो यह गाथा त्रुटिन है, और 'गणमिऊग्ण आयुर्वेद के साथ कोई खास मंबंध नहीं है। फिर भी इम पुब्वविजे' गाथाके पर्व तो हम गाथाकी स्थिति ही अधिकारमें कई चमत्कारी वर्णन है पर उनमें मधुमाम मंदिग्ध है । शायद यह अशुद्ध भी हो और खून आदिका खुले तौर पर विधान है। हो सकता है कि 'अहिमाणेण' की जगह 'अहियाणेगा' पाट हो, तब ये मैनत्वकी दृष्टि से नहीं-पदार्थ-शक्ति विज्ञान (माइम) 'कुविय' पदका क्या अर्थ है ? 'कुविय' के अर्थ कोपमें की दृष्टिसे कुछ महत्व रखते हों । ऐमी रचना विरक्तमाधु- कुपिन और कुप्य हैं । 'कोऽपिच' या 'किमपिच' अर्थ की न होकर भट्टारक मुनियों की हो मकती है। इनके हो जावे तो किसी नरह यह अर्थ हो सकता है कि गुरुजमानेमें मंत्र-तंत्र-चमत्कारसे अधिक प्रभाव होता था। पादमूल में (अणेग अहिया कुविय ) इसमें अधिक
३-उपलब्ध महाधिकारोंके श्रादिमें मंगलाचरण कोई पाहु ग्रंथ हमने नहीं पाया । (इय) इस प्रकार पाया जाता है, छोटे अधिकारों में नहीं । भिन्न-भिन्न मंग
यह अधिकार रचा गया है। फिर भी अम्हि' पद और
त्रुटितपद क्या है ? यदि निर्दिष्ट अर्थ टीक हो तो 'जोणिलमें भिन्न-भिन्न तीर्थकरको नमस्कार किया है।
पादुढ' की यही अंतिमसमामि मूचक गाथा होनी Y-इसका ३६वा जालागढह अधिकार नहीं है। चाहिये । खोज की काफी ज़रूरत है। उस अधिकारमें अनेकान्त पृ० ४८८ पर मुद्रित “ओं यह मारतंत्र विद्यानुशासनमें पाया है और
- इस मंत्रमें दशरा-मशरा जैसी मारियां होंगी। वंकटेश्वर प्रेस बंबईसे मुक्ति हो चुका है।