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________________ वर्ष २, किरण ११] जगत्सुन्दरी-प्रयोगमाला विषयकउल्लेखसे स्पष्ट है। हाँ, यशःकीर्ति (कर्ता ) ने साथ साथ अधूरी भी है। इसमें प्रथके ४३ अधिकारों से शाकिन्यधिकारकी उद्धृत ७६वीं और ७३वीं गाथाओंमें श्रादिके सिर्फ ३२ अधिकार तो प्रायः पर्ण है और ३३ 'भइरयसपाहुर' और 'सुग्रीवमत' व 'ज्वालिनीमत का अधिकारकी ७६।। गाथाएँ देनेके बाद एकदम ग्रन्थकी उल्लेख अवश्य किया है ज्वालिनीमत" मंत्रवादके कापी बन्द कर दी गई है और ऐसा करनेका कोई लिए प्रसिद्ध भी है। कारण भी नहीं दिया और न ग्रंथकी समाप्ति को ही जैनों की लापरवाहीसे जिनवाणके अङ्ग छिन्नभिन्न वहाँ सूचित किया है। केकडीकी प्रति लेखकके कथना. होते जा रहे है। इस बातकी कुछ झलक पाठकोंको नुसार नसीराबाद के जौहरी अमरसिंहजीकी प्रति परसे इस लेख द्वारा मालूम होगी। जैनी लोग जिनवाणीके उतरवाई गई है, जो अनभ्यस्त लेखक-दारा उतरवाई प्रति अपना समुचित कर्तव्य पालन करेंगे इसी भावनासे जाने के कारण अशुद्ध हो गई है । साथ ही यह भी यह लेख प्रस्तुत किया गया है। अधुरी है । उसमें उपाध्याय जीकी प्रतिसे ३३३ प्रधि कारकी शेष गाथाएँ (२२४ के करीब), ३४वाँ अधिकार सम्पादकीय नोट परा और ३५वें अधिकारकी २४० गाथाएं अधिक है। अनेकान्तकी गत हवी किरणमें प्रकाशित 'योनि- शेष ३५वे अधिकारकी श्रवशिष्ट गाथाएँ और ३६ से प्राभूत और जगत्सुंदरी-योगमाला' नामक मेरे लेखको ४३ तकके ८ अधिकार पर उममें भी नहीं है । इस तरह पढ़कर सबसे पहले प्रोफेसर ए. एन. उपाध्यायने 'जग- चार पाँच स्थानोंकी जिन प्रतियोंका पता चला है व मुंदरीयोगमाला' की अपनी प्रति मेरे पाम रजिष्टरीस सब अधरी हैं, और इमलिये इस बातकी खास जरूरत भेजनेकी कृपा की, जिसके लिये वे धन्यवाद के पात्र हैं। है कि इम ग्रंथकी पूर्ण प्रति शी तलाश की जाय, माथ ही, यह सूचित करते हुए कि वे अर्मा हुश्रा स्वयं जिमसे ग्रंथके कर्तादि विषय पर पग प्रकाश पड़ सके । इस ग्रंथ पर लेख लिखनेका विचारकर रहे थे परन्तु उन्हें आशा है जहाँ के महारोम इम ग्रन्थकी पर्ण प्रति होगी अब तक योग्य अवसर नहीं मिल सका, मुझे ही लेग्न वहाँ के परोपकारी तथा ग्रन्थोद्धार-प्रिय भाई उससे शीघ्र लिखनेकी प्रेरका की। ग्रन्थावलोकनके पश्चात मैं लेग्व ही मुझे सूचित करने की कृपा करेंगे। लिखना ही चाहता था कि कछ दिन बाद पं0 दीपचंद जी ग्रंथकी प्रतियोम ग्रंथका नाम जगन्मुंदरी-योगमाला पांड्याका यह लेख था गया। इसमें ग्रंथका कितना ही और प्रयोगमाला दोनों ही रूपमं पाया जाता है, इसी परिचय देखकर मुझे प्रमन्नता हुई; और इमलिये मैंने से लेग्वक के 'जगत्मदर्गप्रयोगमाला' शीर्षक तथा नामअभी इम लेखको दे देना ही उचित समझा है। को भी कायम रक्खा गया है। प्राकृनमें जगमुंदरी श्रीर उपाध्याय जीकी प्रति फलटण के मिस्टर वीरचन्द जयमुंदरी भी लिखा है । मंधियाँ कहीं ना ग्रन्थकर्ताक कोदरजीकी प्रतिकी ज्योकी त्यो नकल है-उममें मूल- नामोल्लेव पर्वक विस्तारके माथ दी हैं और कहीं बिना प्रतिसे मुकाबलेके सिवा सुधारादिका कोई कार्य नहीं नाम के मंक्षेपमें ही, और उनका क्रम उपाध्यायनी तथा किया गया है.--और कोदरजीकी प्रति जयपुरकी किमी केकड़ीकी प्रतियां म एक-जमा नहीं पाया जाना । उदा. प्रति परसे उतरवाई गई थी। यह प्रति अशुद्ध होनेके हरख के लिये केकड़ीकी प्रतिम 'ग्रहणीप्रशमन' नाम के
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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