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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ को सोचें और तब अमुक नयसे उसे संगतियुक्त विषय बना हुआ है और उसपर हम अभिमान स्वीकार करले।
करते हैं; पर उसका व्यवहार हमने नहीं किया।
यही कारण है कि जिनके आँगनमें कल्पवृक्ष लेख समाप्त करनेसे पहले हमें खेदपूर्वक यह खड़ा है वेही आज संताप भोग रहे हैं और अपनी स्वीकार करना चाहिये कि जैनेतरोंकी तो बात ही शक्तियों को विभाजित करके अशक्त एवं दीन क्या, स्वयं जैनोंने भी एक प्रकारसे अनेकान्तवाद बन गये हैं। क्या यह संभव नहीं है कि अनेको भुला दिया है। जो अनेकान्त नास्तिकवाद
कान्तवादके उपासक अपने मतभेदोंका अनेकान्तजैसे जघन्य माने जाने वाले वादोंका भी समन्वय
वाद के द्वारा निपटारा करें और सत्यके अधिक करनेमें समर्थ है उसे स्वीकार करते हुएभी जैन
सन्निकट पहुँचकर एक अखंड और विशाल समाज अपने क्षुद्रतर मतभेदोंका आज समन्वय
संघका पुनर्निर्माण करें । यदि ऐसा हुआ तो नहीं कर सकता। आज अनेकान्तवाद 'पोथीका
समझना चाहिए कि अनेकान्त अबभी जीवित बैगन' बन गया है, वह विद्वानोंकी चर्चाका है और भविष्यमें भी जीवित रहेगा । अस्तु ।
दीपावलीका एक दीप
दीपक हूँ मस्तकपर मेरे
नहीं किसीके हृदय-पटल पर अग्नि-शिखा है नाच रही
खिंची कृतज्ञताकी रेखा , यही सोच समझा था शायद
नहीं किसीको आँखों में आदर मेरा करें सभी !
आँसू तक भी मैंने देखा ! (२) किन्तु जल गया प्राण-सूत्र जब
मुझे विजित लखकर भी दर्शक स्नेह सभी निःशेष हुआ
नहीं मौन हो रहते हैं, बुझी ज्योति मेरे जीवनकी
तिरस्कार विद्रूप भरे वे शवसे उठने लगा धुआँ;
वचन मुझे श्रा कहते हैं(५) 'बना रखी थी हमने दीपोंकी सुन्दर ज्योतिर्मालारे कृतघ्न, तूने बुझ कर क्यों उसको खण्डित कर डाला ?,
-भप्रदूत