________________
वीरशासनके मूलतत्व
अनेकान्तवाद और स्याद्वाद
( ले० श्री पं० वंशीधर - व्याकरणाचार्य, न्यायतीर्थ व साहित्यशास्त्री )
कोई भी धर्मप्रवर्तक अपने शासनको स्थायी
'और व्यापक रूप देनेके लिये मनुष्य समाज के सामने दो बातोंको पेश करता है - एकतो धर्मका उद्देश्य रूप और दूसरा उसका विधेय-रूप । दूसरे शब्दों में धर्म के उद्देश्य-रूपको साध्य, कार्य या सिद्धान्त कह सकते हैं और उसके विधेय-रूपको साधन, कारण या आचरण कह सकते हैं । वीरशासनके पारिभाषिक शब्दोंमें धर्मके इन दोनों रूपोंको क्रमसे निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म कहा गया है । प्राणिमात्रके लिये आत्मकल्याण में यही निश्चय-धर्म उद्दिष्ट वस्तु है और व्यवहारधर्म है इस निश्चय-धर्मकी प्राप्तिके लिये उसका कर्तव्य मार्ग
1
इन दोनों बातोंको जो धर्मप्रवर्तक जितना सरल, स्पष्ट और व्यवस्थित रीतिसे रखनेका प्रयत्न करता है उसका शासन संसार में सबसे अधिक महत्वशाली समझा जा सकता है। इतना ही नहीं वह सबसे अधिक प्राणियों को हितकर हो सकता है । इसलिये प्रत्येक धर्मप्रवर्तकका लक्ष्य दार्शनिक सिद्धान्त की ओर दौड़ता है। वीरभगवान्का ध्यान भी इस ओर गया और उन्होंने दार्शनिक तत्त्वोंको व्यवस्थित रूपसे उनकी तथ्यपूर्ण स्थिति तक पहुँचाने के लिये दर्शनशास्त्र के आधारस्तम्भ
रूप अनेकान्तवाद और स्याद्वाद इन दो तत्वोंका आविर्भाव किया ।
कान्तवाद और स्याद्वाद ये दोनों दर्शनशास्त्रके लिये महान् गढ़ हैं । जैनदर्शन इन्हीं की सीमामें विचरता हुआ संसारके समस्त दर्शनोंके लिये आज तक अजेय बना हुआ है। दूसरे दर्शन जैन दर्शनको जीतनेका प्रयास करते तो हैं परंतु इन दुर्गोंके देखने मात्रसे उनको निःशक्त होकर बैठ जाना पड़ता है --किसी के भी पास इनके तोड़नेके साधन मौजूद नहीं हैं।
1
जहाँ अनेकान्तवाद और स्याद्वादका इतना महत्व बढ़ा हुआ है वहाँ यह भी निःसंकोच कहा जा सकता है कि साधारण जनकी तो बात ही क्या ? जैन विद्वानोंके साथ साथ प्राय: जैन विद्वान भी इनका विश्लेषण करनेमें असमर्थ हैं।
अनेकान्त और स्यात् ये दोनों शब्द एकार्थक हैं या भिन्नार्थक ? अनेकान्तवाद और स्याद्वादका स्वतन्त्र स्वरूप क्या है ? अनेकान्तवाद और स्याद्वाद दोनों का प्रयोगस्थल एक है या स्वतन्त्र ? आदि समस्याएँ आज हमारे सामने उपस्थित हैं ।
यद्यपि इन समस्याओंका हमारी व दर्शनशास्त्रकी उन्नति या अवनति से प्रत्यक्ष रूपमें कोई संबन्ध नहीं है परन्तु अप्रत्यक्षरूपमें ये हानिकर