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________________ २८ अनेकान्त अवश्य हैं। क्योंकि जिस प्रकार एक ग्रामीण कवि छंद, अलंकार, रस, रीति आदिका शास्त्रीय परिज्ञान न करके भी छंद अलंकार आदि से सुसज्जित अपनी भावपूर्ण कवितासे जगतको प्रभावित करने में समर्थ होता है उसी प्रकार सर्वसाधारण लोग अनेकान्तवाद और स्याद्वादके शास्त्रीय परि ज्ञानसे शून्य होने पर भी परस्पर विरोधी जीवनसंबन्धी समस्याओं का इन्हीं दोनों तत्त्वोंके बलपर अविरोध रूपसे समन्वय करते हुए अपने जीवन-संबन्धी व्यवहारोंको यद्यपि व्यवस्थित बना लेते हैं परंतु फिर भी भिन्न भिन्न व्यक्तियों के जीवनसंबन्धी व्यवहारोंमें परस्पर विरोधीपन होनेके कारण जो लड़ाई-झगड़े पैदा होते हैं वे सब अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के रूपको न समझनेका ही परिणाम है । इसी तरह अजैन दार्शनिक विद्वान भी अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को दर्शनशास्त्र के अंग न मानकरके भी अपने सिद्धान्तों में उपस्थित हुई परस्पर विरोधी समस्याओं को इन्हींके बलपर हल करते हुए यद्यपि दार्शनिक तत्त्वोंकी व्यवस्था करनेमें समर्थ होते हुए नजर आ रहे हैं तो भी भिन्न भिन्न दार्शनिकोंके सिद्धान्तोंमें परस्पर विरोधीपन होनेके कारण उनके द्वारा अपने सिद्धान्तों को सत्य और महत्वशाली तथा दूसरेके सिद्धान्त को सत्य और महत्वरहित सिद्ध करनेकी जो असफल चेष्टा की जाती है वह भी अनेकान्तवाद और स्याद्वाद स्वरूपको न समझनेका ही फल है । [कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६५ जैनी लोग यद्यपि अनेकान्तवादी और स्याद्वादी कहे जाते हैं और वे खुद भी अपनेको ऐसा कहते हैं, फिरभी उनके मौजूदा प्रचलित धर्ममें जो साम्प्रदायिकता और उनके हृदयों में दूसरोंके प्रति जो विरोधी भावनाएँ पाई जाती हैं उसके दो कारण हैं- एकतो यह कि उनमें भी अपने धर्मको सर्वथा सत्य और महत्वशील तथा दूसरे धर्मोंको सर्वथा असत्य और महत्व रहित समझनेकी अहंकारवृति पैदा होजानेसे उन्होंने अनेकान्तवाद और स्याद्वाद - के क्षेत्रको बिलकुल संकुचित बना डाला है, और दूसरे यह कि अनेकान्तवाद और स्याद्वादकी व्यावहारिक उपयोगिताको वे भी भूले हुए हैं । सारांश यह कि लोकमें एक दूसरेके प्रति जो विरोधी भावनाएँ तथा धर्मोंमें जो साम्प्रदायिकता आज दिखाई दे रही है उसका कारण अनेकान्तवाद और स्याद्वादको न समझना ही कहा जा सकता है। अनेकान्त और स्यात् का अर्थभेद बहुतसे विद्वान इन दोनों शब्दों का एक अर्थ स्वीकार करते हैं । उनका कहना है कि अनेकान्त रूप-पदार्थ ही स्यात् शब्दका वाच्य है और इसीलिये वे अनेकान्त और स्याद्वाद में वाच्य वाचक संबन्ध स्थापित करते हैं – उनके मतसे 'अनेकान्त वाच्य है और स्याद्वाद उसका वाचक है । परन्तु " वाक्येष्वनेकान्तद्योती" इत्यादि कारिकामें पड़े हुए “द्योती” शब्द के द्वारा स्वामी समन्तभद्र स्पष्ट संकेत कर रहे हैं कि 'स्यात्' शब्द अनेकान्तका द्योतक है वाचक नहीं । यद्यपि कुछ शास्त्रकारों ने भी कहीं कहीं स्यात् शब्दको अनेकान्त अर्थका वोधक स्वीकार किया है, परन्तु वह अर्थ व्यवहारोपयोगी नहीं मालूम पड़ता है— केवल स्यात् शब्दका अनेकान्तरूप रूढ़ अर्थ मानकर इन दोनों शब्दों की समानार्थकता सिद्ध की गई है । यद्यपि रूढ़िसे शब्दोंके अनेक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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