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वर्ष २ किरण १]
अनेकान्तवाद और स्याद्वाद अर्थ हुआ करते हैं और वे असंगत भी नहीं कहे अनेकान्तवाद समझना चाहिये । यही अनेकान्तजाते हैं फिरभी यह मानना ही पड़ेगा कि स्यात् वादका अविकलस्वरूप कहा जा सकता है। शब्दका अनेकान्तरूप अर्थ प्रसिद्धार्थ नहीं है।
__ स्याद्वाद शब्दके दो शब्दांश हैं-स्यात् और जिस शब्दसे जिस अर्थका सीधे तौरपर जल्दीसे
वाद । ऊपर लिख अनुसार स्यात् और कथंचित् बोध हो सके वह उस शब्दका प्रसिद्ध अर्थ
ये दोनों शब्द एक अर्थक बोधक हैं-कथंचित् माना जाता है और वही प्राय: व्यवहारोपयोगी
शब्दका अर्थ है "किसीप्रकार" यही अर्थ स्यात् हुआ करता है; जैसे गो शब्द पशु, भूमि, वाणी
शब्दका समझना चाहिये । वाद शब्दका अर्थ है आदि अनेक अर्थों में रूढ़ है परन्तु उसका प्रसिद्ध
मान्यता । किसी प्रकारसे अर्थात् एक दृष्टिसे-एक अर्थ पशु ही है, इसलिये वही व्यवहारोपयोगी
अपेक्षासे या एक अभिप्रायसे” इस प्रकारकी माना जाता है । और तो क्या ? हिन्दीमें गौ या
मान्यताका नाम स्याद्वाद है। तात्पर्य यह कि गाय शब्द जो कि गो शब्दके अपभ्रंश हैं केवल स्त्री
विरोधी और अविरोधी नाना धर्मवाली वस्तुमें गो में ही व्यवहृत होते हैं पुरुष गो अर्थात् बैल रूप
अमुक धर्म अमुक दृष्टिसे या अमुक अपेक्षा या अर्थमें नहीं, इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे बैल रूप
अमुक अभिप्रायसे है तथा व्यवहारमें "अमुक अर्थ के वाचक ही नहीं हैं किन्तु बैल रूप अर्थ ,
कथन, अमुक विचार, या अमुक कार्य,अमुक दृष्टि, उनका प्रसिद्ध अर्थ नहीं ऐसा ही समझना चाहिये। अमुक अपेक्षा, या अमुक अभिप्राय को लिये हुए स्यात शब्द उच्चारणके साथ साथ कथंचित् है" इस प्रकार वस्तुके किसीभी धर्म तथा व्यव. अर्थकी ओर संकेत करता है अनेकान्त-रूप अर्थकी
हारकी सामंजस्यता की सिद्धिके लिये उसके दृष्टिओर नहीं, इसलिये कथंचित् शब्दका अर्थ ही
कोण या अपेक्षाका ध्यान रखना हो स्याद्वादका स्यात् शब्दका अर्थ अथवा प्रसिद्ध अर्थ समझना स्वरूप माना जासकता है। चाहिये।
अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के प्रयोगका अनेकान्तवाद और स्याद्वादका स्वरूप अनेकान्तवाद शब्दके तीन शब्दांश हैं-अनेक,
___ स्थल भेद अन्त और वाद । इसलिये अनेक-नाना, अन्त-वस्तु (१) इन दोनों के उल्लिखित स्वरूपपर ध्यान धर्मोकी, वाद-मान्यताका नाम अनेकान्तवाद' है। देनेसे मालूम पड़ता है कि जहाँ अनेकान्तवाद एक वस्तु में नाना धर्मों (स्वभावों) को प्रायः सभी हमारी बुद्धिको वस्तुके समस्त धर्मोकी ओर समान दर्शन स्वीकार करते हैं, जिससे अनेकान्तवादकी रूपसे खींचता है वहाँ स्याद्वाद वस्तुके एक धर्मकोई विशेषता नहीं रह जाती है और इसलिये का ही प्रधान रूपसे बोध कराने में समर्थ है । उन धर्मोका क्वचित् विरोधीपन भी अनायास (२) अनेकान्तवाद एक वस्तुमें परस्पर विरोधी सिद्ध हो जाता है, तब एक वस्तुमें परस्पर विरोधी और अविरोधी धर्मोंका विधाता है-वह वस्तु- और अविरोधी नाना धर्मोंकी मान्यताका नाम को नाना धर्मात्मक बतलाकर ही चरितार्थ हो