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________________ ३० अनेकान्त [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ जाता है । स्याद्वाद उस वस्तुको उन नाना धर्मोके अनेकान्तवाद । लेकिन किस रोगीके लिये वह दृष्टिभेदोंको बतला कर हमारे व्यवहारमें आने उपयोगी है और किस रोगीके लिये वह अनुपयोग्य बना देता है अर्थात् वह नाना धर्मात्मक येोगी है, इस दृष्टिभेदको बतलाने वाला यदि 'वस्तु हमारे लिये किस हालतमें किस तरह स्याद्वाद न माना गया तो यह मान्यता न केवल उपयोगी होसकती है यह बात स्याद्वाद बतलाता व्यर्थ ही होगी बल्कि पित्तज्वरवाला रोगी लंघनहै। थोड़ेसे शब्दोंमें यों कहसकते हैं कि की सामान्य तौरपर उपयोगिता समझकर यदि अनेकान्तवादका फल विधानात्मक है और स्याद्वाद- लंघन करने लगेगा तो उसे उस लंघनके द्वारा हानि का फल उपयोगात्मक है। ही उठानी पड़ेगी। इसलिये अनेकान्तवादके द्वारा (३) यहभी कहा जासकता है कि अनेकान्तवाद रोगीके संबन्ध में लंघनकी उपयोगिता और का फल स्याद्वाद है-अनेकान्तवादकी मान्यताने अप अनुपयोगिता रूप दो धर्मोको मान करके भी ही स्याद्वादकी मान्यताको जन्म दिया है। क्योंकि वह लंघन अमुक रोगीके लिये उपयोगी और जहाँ नानाधमों का विधान नहीं है वहाँ विभेदकी अमुक रोगीके लिये अनुपयोगी है इस दृष्टि-भेदको कल्पना होही कैसे सकती है? ___ बतलाने वाला स्याद्वाद मानना ही पड़ेगा। एक बात और है, अनेकान्तवाद वक्तासे उल्लिखित तीन कारणों से बिल्कुल स्पष्ट हो अधिक संबन्ध रखता है; क्योंकि वक्ताकी दृष्टि ही जाता है कि अनेकान्तवाद और स्याद्वादका प्रयोग विधानात्मक रहती है। इसी प्रकार स्याद्वाद श्रोता भिन्न २ स्थलों में होना चाहिये । इस तरह यह से अधिक संबन्ध रखता है; क्योंकि उसकी दृष्टि बात भलीभांति सिद्ध हो जाती है कि अनेकान्त- हमेशा उपयोगात्मक रहा करती है । वक्ता वाद और स्याद्वाद ये दोनों एक नहीं हैं; परन्तु अनेकान्तवादके द्वारा नानाधर्मविशिष्ट वस्तुका परस्पर सापेक्ष अवश्य हैं। यदि अनेकान्तवादकी दिग्दर्शन कराता है और श्रोता स्याद्वादके जरिये मान्यताके बिना स्याद्वादकी मान्यताकी कोई से उस वस्तुके केवल अपने लिये उपयोगी अंशको आवश्यकता नहीं है तो स्याद्वादकी मान्यताके बिना ग्रहण करता है। अनेकान्तवादकी मान्यता भी निरर्थकही नहीं ___इस कथन से यह तात्पर्य नहीं लेना चाहिये बल्कि असंगत ही सिद्ध होगी। हम वस्तुको । ' कि वछा 'स्यात्' को मान्यताको और श्रोता नानाधर्मात्मक मान करके भी जबतक उन नाना 'भनेकान्त'की मान्यताको ध्यान में नहीं रखता है। धर्मोका दृष्टिभेद नहीं समझेंगे तबतक उन धर्मोकी यदि वक्ता 'स्यात्'की मान्यताको ध्यान में नहीं मान्यता अनुपयोगी तो होगी ही, साथही वह मावेगा तो वह एक वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मोमान्यता युक्ति-संगत भी नहीं कही जा सकेगी।। ' का समन्वय न कर सकनेके कारण उन विरोधी ___ जैसे लंघन रोगीके लिये उपयोगी भी है और धर्मोका उस वस्तु में विधान ही कैसे करेगा? अनुपयोगी भी, यह तो हुआ लंघनके विषय में ऐसा करते समय विरोधरूपी सिपाही चोरकी
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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