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Bardhamanawa panduan
ले-अयोध्याप्रसाद गोयलीय
o कथा कहानी
- अयोध्याप्रसाद गोयलीप
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(१२)
तूने सोचा--'जब भरे दरबार में दुर्योधनने साड़ी महाभारतके युद्ध में कौरव सेनापति भीष्मपिता- खींची तब उपदेश देते न बना, बनोंमें पशु-तुल्य
मह जब अर्जुनके बाणोंसे घायल होकर रण जीवन व्यतीत करनेको मजबूर किया गया तब भूमिमें गिर पड़े तो कुरुक्षेत्रमें हा-हाकार मचगया। सान्त्वनाका एक शब्दभी मुँहसे न निकला, कीचक कौरव-पाण्डव पारस्परिक वैर-भाव भूलकर गायकी द्वारा लात मारे जानेके समाचार भी साम्यभावसे तरह डकराते हुए उनके समीप आए । भीष्मपिता- सुन लिये, रहने योग्य स्थान और क्षुधा-निवृत्तिको महकी मृत्यु यद्यपि पाण्डव-पक्षकी विजय-सूचक भोजन मांगने पर जब कौरवोंने हमें दुतकार थी। फिर भी थे तो पितामह न ? धर्मराज युधिष्ठिर दिया, तब उपदेश याद न आया। सत्य और बालकोंकी भाँति फुप्पा मार कर रोने लगे । अन्तमें अधिकारकी रक्षाके लिये पांडव युद्ध करनेको धैर्य रखते हुए रुंधे हुए कण्ठसे बोले-"पितामह ! विवश हुए तो सहयोग देना तो दूर, उल्टा कौरवोंहम ईर्ष्यालु दुर्बुद्धि पुत्रोंको, इस अन्त समयमें के सेनापति बनकर हमारे रक्तके प्यासे हो उठे जीवनमें उतारा हुआ कुछ ऐसा उपदेश देते जाइये और जब पांडवों द्वारा मार खाकर जमीन Vष जिससे हम मनुष्य जीवनकी सार्थकता प्राप्त कर रहे हैं--मृत्युकी घड़ियाँ गिन रहे हैं तब हमीको सकें।" धर्मराजके वाक्य पूरा होनेपर अभी पिता- उपदेश देनकी लालसा बलवती हो रही है। पुत्री महके ओठ परी तरह हिल भी न पाए थेकि द्रोपदी- तेरा यह सोचना सत्य है। त मुझ पर जितना के मुखपर एक हास्यरेखा देख सभी विचलित हो हँसे कम है। परन्तु, पुत्री ! उस समय मुझमें उठे। कौरवोंने रोप भरे नेत्रोंसे द्रोपदी को देखा। उपदेश देनेकी क्षमता नहीं थी, पापात्मा कौरवोंका पाण्डवोंने इस अपमान और ग्लानिका अनुभव अन्न खाकर मेरी आत्मा मलीन होगई थी, दूषित करते हुए सोचा--"हमारे सरसे साया उठ रहा रक्त नाड़ियों में बहनेसे बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। किन्तु है और द्रोपदीको हास्य सूझा है ।" पितामहको वह सब अपवित्र रक्त अर्जुनके बाणोंने निकाल कौरव-पांडवोंकी मनोव्यथा और द्रोपदीके हास्यको दिया है। अतः श्राज मुझे सन्मार्ग बतानेका भांपनेमें विलम्ब न लगा। वे मधुर स्वरमें बोले साहसहो सकता है।" 'बेटी द्रोपदी! तेरे हास्यक