SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष २, किरण २] ऊच-गोत्रका व्यवहार कहाँ ? १३५ तद्वीपरीतं नीचैर्गोत्रम् । एवं गोत्रस्य च्छिन्न ऋषि-परम्परासे बराबर चला पाता है। जिनाद्वे एव प्रकृती भवतः।" गमके उपदेष्टा जिनेन्द्रदेव-भ० महावीर-राग, द्वेष, मोह और अज्ञानादि दोषोंसे रहित थे। ये अर्थात-उच्चगोत्र निष्फल नहीं है; क्योंकि ही दोष असत्यवचनके कारण होते हैं। कारणउन पुरुषांकी सन्तान उच्चगोत्र होती है जो दीक्षा के प्रभावमें कार्यका भी प्रभाव हो जाता है, और योग्य-साधुश्राचारोंसे युक्त हों, साधु-आचार- इसलिए सर्वश-वीतराग-कथित इस गोत्रकर्मवालोंके साथ जिन्होंने सम्बन्ध किया हो, तथा को असत्य नहीं कहा जासकता, न उसका प्रभाव आर्याभिमत नामक व्यवहारोंसे जो बँधे हों। ही माना जासकता है । कम-से-कम आगम-प्रमाणऐसे पुरुषोंके यहाँ उत्पत्तिका-उनकी सन्तान द्वारा उसका अस्तित्व सिद्ध है। पूर्वपक्षमें भी बननेका-जो कारण है वह भी उमगोत्र है। उसके अभावपर कोई विशेष जोर नहीं दिया गयागोत्रके इस स्वरूपकथनमें पूर्वोक्त दोषोंकी संभा- मात्र उमगोत्रके व्यवहारका यथेष्ठ निर्णय न हो वना नहीं है क्योंकि इस स्वरूपके साथ उन दोषोंका सकनेके कारण उकताकर अथवा आनुषंगिकविरोध है-उचगोत्रका ऐमा स्वरूप अथवा ऐसे रूपसे गोत्रकर्मका अभाव बतला दिया है। इसके पुरुषोंकी सन्तानमें उचगोत्र का व्यवहार मान- लिये जो दूसरा उत्तर दिया गया है वह भी ठीक ही लेनेपर पूर्व-पक्षमें उद्भत किये हुए दोष नहीं बन है। निःसन्देह, केवल ज्ञान-गोचर कितनी ही ऐसी मकते। पञ्चगोत्रके विपरीत नीचगोत्र है...जो सूरम बातें भी होती हैं जो लौकिक झानोंका विषय लोग उक्त पुरुषोंकी मन्तान नहीं है अथवा उनसे नहीं हो सकती अथवा लौकिक साधनोंसे जिनका विपरीत आचार-व्यवहार-वालोंकी सन्तान हैं वे ठीक बोध नहीं होना, और इसलिये अपने ज्ञानका सब नीचगोत्र-पद के वाच्य हैं, ऐसे लोगोंमें जन्म विषय न होने अथवा अपनी ममझ में ठीक न लेने के कारणभूत कर्मको भी नीचगोत्र कहते हैं। बैठने के कारण ही किसी वस्तुनत्वके अस्तित्वसे इस तरह गोत्रकर्म की दो ही प्रकृतियाँ होती हैं। इनकार नहीं किया जामकता। ___ यह उत्तरपन्न पूर्वपक्षके मुकाबलेमें कितना सबल है, कहाँ तक विषयको स्पष्ट करता है और हाँ, उत्तरपनका दूसग विभाग मुझे बहुत किस हद तक सन्तोषजनक है, इसे सहदय पाठक कुछ अस्पष्ट जान पड़ना है। उसमें जिन पुरुषोंकी एवं विद्वान महानुभाव स्वयं अनुभव कर सकतं मतानको उबगोत्र नाम लिया गया है उनके विशेहैं। मैं तो, अपनी समझ के अनुसार, यहाँपर पणों पर से उनका ठीक स्पष्टीकरण नहीं होतामिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि इस उत्तर- यह मालूम नहीं होना कि-१ दीक्षायोग्य साधुपक्ष का पहला विभाग तो बहुत कुछ स्पष्ट है। प्राचारोंसे कौनसे प्राचार विशेष अभिप्रेत है ? गोत्रकर्म जिनागमकी नाम वस्तु है और उसका २ 'दीना' शनी मुनिदीलाका ही अभिप्राय है या वह उपदेश जो उत्त मूलसूत्र में मंनिविध है, अवि. श्रावकदीक्षाका भी? क्योंकि प्रतिमाओं के प्रति
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy