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________________ १३४ अनेकान्त [मार्गशिर, वीर-निर्वाण सं० २४६५ - लिए बड़े ही उत्कण्ठित रहते थे कि गोत्रकर्मके बात इतने परसे ही जानी जासकती है कि उसके आधारपर किसको ऊँच और किसको नीच कहा वक्ता श्रीजिनेन्द्रदेव ऐसे प्राप्त पुरुष होते हैं जिनमें जाय ?-उसकी कोई कसौटी मालूम होनी चाहिए। असत्य के कारणभूत राग-द्वेष-मोहादिक दोषोंका पाठक भी यह जाननेके लिए बड़े उत्सुक होंगे कि सद्भाव ही नहीं रहता। जहाँ असत्य-कथनका आखिर वीरसंनाचार्यने अपनी धवला-टीकामें, कोई कारण ही विद्यमान न हो वहाँसे असत्यकी उक्त पूर्वपक्षका क्या 'उत्तरपक्ष' दिया है और कैसे उत्पत्ति भी नहीं होसकती, और इसलिये जिनेन्द्रउन प्रधान आपत्तियोंका समाधान किया है जो पूर्व- कथित गोत्रकर्मका अस्तित्व जरूर है। पक्षके आठवे विभागमें खड़ी की गई हैं। अतः मैं इसके सिवाय, जो भी पदार्थ केवलज्ञानके भी अब उस उत्तरपक्षको प्रकट करनेमें विलम्ब विषय होते हैं उन सबमें रागीजीवोंके ज्ञान प्रवृत्त करना नहीं चाहता। पूर्व-पतके आठचे विभागमें नहीं होते, जिससे उन्हें उनकी उपलब्धि न होनेपर जो आपत्तियां खड़ी की गई हैं वे संक्षेपत: दो जिनवचनको अप्रमाण कहा जासके। अर्थात् केवलभागोंमें बांटी जा सकती हैं-एक तो ऊँच गोत्रका ज्ञानगोचर कितनी ही बातें ऐसी भी होती हैं जो व्यवहार कहीं ठीक न बननेसे ऊँच गोत्रकी निष्फ छद्मस्थोंके झानका विषय नहीं बन सकतीं, और लता और दूसरा गोत्रकर्मका प्रभाव । इसीलिए इसलिए रागाकान्त छमस्थोंको यदि उनके अस्तित्वउत्तरपक्षको भी दो भागों में बांटा गया है, पिछले का स्पष्ट अनुभव न हो सके तो इतने पर से ही भागका उत्तर पहले और पूर्व विभागका उत्तर उन्हें अप्रमाण या असत्य नहीं कहा जा सकता। पादको दिया गया है और वह सब क्रमशः इस (२) "नच निष्फलं उच्चैः गोत्रं, दीक्षायोग्यप्रकार है : साध्वाचाराणं साध्वाचारैः कृतसम्ब(१) "[इति] न, जिनवचनस्याऽसत्यत्व- न्धानामार्यप्रत्ययाभिधानव्यवहार-निवविरोधात; तद्विरोधोऽपि तत्र तत्कारणाभाव न्धनानां पुरुषाणां संतानः उच्चैर्गोत्रम् । तोऽवगम्यते । न च केवलज्ञानविषयीकृते तत्रोत्पत्तिहेतुकमप्युच्चैर्गोत्रम् । न चास्त्र वर्थेषु सकलेष्वपि रजोजुषां ज्ञानानि प्रवर्तन्ते पूर्वोक्तदोषाः संभवन्ति विरोधान् । येनाऽनुपलंभाज्जिनवचनस्याप्रमाणत्वमुच्येत ।" * जैसा कि 'धवला' के ही प्रथम खण्डमें उद्धृत निम्न वाक्योंसे प्रकट है:अर्थात्-इस प्रकार गोत्रकर्मका प्रभाव कहना आगमो साप्त वचनं प्राप्त दोषक्षयं विदुः । ठीक नहीं है, क्योंकि गोत्रकर्मका निर्देश जिन- व्यक्तदोषोऽनृतं वाक्यं न ब या गत्वसंभवात् ॥ वचन-द्वारा हुआ है और जिनवचन असत्यका रागाहा पाहा मोहादा नाक्यमुच्यते पनृतम् । विरोधी । जिनवचन असत्यका विरोधी है, यह यस्य तु नैते दोषास्तस्यानतकारण नास्ति ।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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