SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष २ किरण २] ऊँच-गोत्रका व्यवहार कहाँ ? १३३ क्योंकि प्रथम तो इक्ष्वाकुत्रादि क्षत्रियकुल काल्प- साथ ही नाभिराजाके पुत्र श्रीऋषभदेव (आदिनिक हैं, परमार्थस (वास्तवमें) उनका कोई अस्तित्व तीर्थकर) को भी नीचगोत्री बतलाना पड़ेगा; क्योंनहीं है। दूसरे, वैश्यों, ब्राह्मणों और शूद्रों में भी कि नाभिराजा अणुव्रती नहीं थे-उस समय तो उखगोत्रके उदयका विधान पाया जाता है। व्रतोंका कोई विधान भी नहीं हो पाया था। (६) "न सम्पनेभ्यो जीवोत्पत्तौ तद्व्यापारः, (८) “ततो निष्फलमुच्चैोत्रं, तत एव न म्लेकराज-समुत्पन्न-पृथुकस्यापि उच्च- तस्य कर्मत्वमपि; तदभावेन नीचैर्गोत्रर्गोत्रोदयप्रसंगात् ।" मपि द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात; ततो अर्थात-सम्पन्न (समृद्ध) पुरुषोंसे उत्पन्न होने गोत्रकर्माभाव इति *।" वाले जीवोंमें यदि उच्चगोत्रका व्यापार माना जाय-. अर्थात्-जब उक्त प्रकारसे उसगोत्रका व्यवसमृद्धों एवं धनाढ्योंकी सन्तानको ही उच्चगोत्री हार कहीं ठीक बैठता नहीं, तब उनगोत्र निष्फल कहा जाय तो म्लेच्छ राजासे उत्पन्न हुए पृथुककं जान पड़ता है और इसीलिए उसके कर्मपना भी भी उच्चगोत्रका उदय मानना पड़ेगा-और ऐमा माना नहीं जाता। (इसके सिवाय, जो सम्पन्नोंसे कुछ बनता नहीं । उचगोत्रके प्रभाव से नीच गोत्र का भी प्रभाव हो जाता है; क्योंकि दोनों में पर. उत्पन्न न होकर निर्धनोंसे उत्पन्न होंगे, उनके उच्च स्पर अविनाभाव सम्बन्ध है-एकके बिना दूसरगोत्रका निषेध भी करना पड़ेगा, और यह बात सिद्धान्तके विरुद्ध जायगी।) का अस्तित्व बनता नहीं। और इसलिये गोत्रकर्म का ही अभाव सिद्ध होता है। (७) "नाऽणुव्रतिभ्यः समुत्पत्ती तव्यापारः, , इस तरह गोत्रकर्मपर आपत्तिका यह 'पूर्वपक्ष' देवेष्वौपपादिकेषु उच्चैर्गोत्रोदयस्य अस- किया गया है, और इससे स्पष्ट जाना जाता है कि त्वप्रसंगात, नामेयश्च (स्य ?) नीचे- गोत्रकर्म अथवा उसका ऊँच-नीच-विभाग आज गोत्रतापत्तेश्च ।" ही कुछ आपत्तिका विषय बना हुआ नहीं है, बल्कि आजसे ११०० वर्षसे भी अधिक समय अर्थात-अणुवतियांस उत्पन्न होने वाले पहलेसे वह आपत्तिका विषय बना हुआ थाव्यक्तियों में यदि उच्चगोत्रका व्यापार माना जाय..... गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता पर लोग तरह-तरहकी अणुवतियांकी सन्तानोंको ही उच्चगोत्री कहा जाय---- आशंकाएँ उठाते थे और इस बातको जाननेके तो यह बात भी सुघटित नहीं होती; क्योंकि ऐसा मानने पर देवोंमें, जिनका जन्म औपपादिक होना * ये सब अवतरण और भागके अवतरगा भी है और जो अगुवतियोंसे पैदा नहीं होतं, भाराके जैन-सिद्धान्त भवनकी प्रति परस लिये उन्नगांत्रक उदयका प्रभाव मानना पड़ेगा, और गये हैं।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy