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अनेकान्त [मार्गशिर, वीर-निर्वाण सं० २४६५ अर्थात-यदि राज्यादि-लक्षणकाली सम्पदाके रहानी हों उन्हें उच्चगोत्री कहा जाय तो यह बात साथ उमगोत्रका व्यापार माना जाय-ऐसे सम्प- भी ठीक घटित नहीं होती ; क्योंकि प्रथम तो त्तिशालियोंको ही उच्चगोत्री कहा जाय तो यह बात शानावरण कर्मके क्षयोपशमकी सहायता-पूर्वक नहीं बनती ; क्योंकि ऐसी सम्पत्तिकी समुत्पत्ति सम्यग्दर्शनसे सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति होती है-उनअथवा सम्प्राप्ति सातावेदनीय कर्मके निमित्तसे गोत्रका उदय उसकी उत्पत्तिमें कोई कारण नहीं है। होती है-उच्चगोत्रका उसके साथ कोई सम्बन्ध दूसरे, तिथंच और नारकियोंमें भी सम्यग्ज्ञानका नहीं है।
सद्भाव पाया जाता है; तब उनमें भी उच्चगोत्रका
- उदय मानना पड़ेगा और यह बात सिद्धान्तके (२) "नाऽपि पंचमहाव्रतग्रहण-योग्यता उच्चै- विरुद्ध होगी-सिद्धान्तमें नारकियों और तिर्यची.
गर्गोत्रेण क्रियते, देवेष्वभव्येषु च तद्- के नीच गोत्रका उदय बतलाया है। ग्रहणं प्रत्ययोग्येषु उच्चैर्गोत्रस्य उदया- (४) "नादेयत्वे यशसि सौभाग्ये वा व्यापारभावप्रसंगात् ।”
स्तेषां नामतस्समुत्पत्तेः ।" अर्थात-यदि यह कहा जाय कि उच्चगोत्रके अर्थात-यदि श्रादेयत्व, यश अथवा सौभाग्यके उदयसे पँचमहाव्रतोंके ग्रहणकी योग्यता उत्पन्न साथमें उच्चगोत्रका व्यवहार माना जाय-जो आदे होती है और इसलिये जिनमें पँचमहाव्रतोंके यगणसे विशिष्ट ( कान्तिमान ), यशस्वी अथवा ग्रहणकी योग्यता पाई जाय उन्हें ही उच्चगोत्री सौभाग्यशाली हों उन्हेंही उच्चगोत्री कहा जायसमझा जाय, तो यह भी ठीक नहीं है ; क्योंकि तो यह बात भी नहीं बनती ; क्योंकि इन गुणोंकी ऐसा मानने पर देवोंमें और अभव्योंमें, जोकि उत्पत्ति प्रादेय, यशः और सुभग नामक नामकर्मपंचमहाव्रत-ग्रहणके अयोग्य होते हैं, उच्चगोत्रके।
प्रकृतियोंके उदयसे होती है-उच्चगोत्र उनकी उदयका प्रभाव मानना पड़ेगा-; परन्तु देवोंके उत्पत्तिमें कोई कारण नहीं है। उच्चगोत्रका उदय माना गया है और अभव्योंके । भी उसके उदयका निषेध नहीं किया गया है।
"" (५) “नेक्ष्वाकुकुलायुत्पत्तौ [ व्यापारः ], (५) नवा
काल्पनिकानां तेषां परमार्थतोऽसत्वाद्, (३) "न सम्यग्ज्ञानोत्पत्ती व्यापारः, ज्ञाना
विड्-ब्राह्मण साधु (शूद्रे ?) प्वपि उच्चैवरण-क्षयोपशम-सहाय-सम्यग्दर्शनतस्त
गर्गोत्रस्योदयदर्शनात् ।" दुत्पत्तेः, तिर्यकनारकेष्वपि उच्चैर्गोत्रं
अर्थात्-यदि इक्ष्वाकु-कुलादिमें उत्पन्न होने के तत्र सम्यग्ज्ञानस्य सत्वात् ।" साथ ऊँच गोत्रका व्यापार माना जाय-जो इन अर्थात्-यदि सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्तिके साथमें क्षत्रियकुलोंमें उत्पन्न हों उन्हें ही उसगोत्री कहा ऊँच गोत्रका व्यापार माना जाय-जो जो सम्य. जाय तो यह बात भी समुचित प्रतीत नहीं होती;