________________
अनेकान्त [मार्गशिर, वीर-निर्वाण सं० २४६५ रिक्त श्रावकोंके बारह प्रतभी द्वादशदीक्षा-भेद कह- होनेसे भी वे उच्चगोत्री नहीं रहेंगे । यदि श्रावकलाते हैं*; ३ सावुश्राचार-वालोंके साथ सम्बन्ध के व्रत भी दीक्षामें शामिल हैं तो तिथंच पशु भी करनेकी जो बात कही गई है वह उन्हीं दीक्षायोग्य उच्चगोत्री ठहरेंगे; क्योंकि वे भी श्रावकके व्रत धारण साधुमाचार वालोंसे सम्बन्ध रखती है या दूसरे करनेके पात्र कहे गए हैं और अक्सर श्रावकके साधुआचार वालोंसे? ४सम्बन्ध करनेका अभिप्राय व्रत धारण करते आए हैं। तथा देव इससे भी विवाह-सम्बन्धका ही है या दूसरा उपदेश, सह- उच्चगोत्री नहीं रहेंगे; क्योंकि उनके किसी प्रकार निवास, सहकार्य, और व्यापारादिका सम्बन्धभी का व्रत नहीं होता-वे अव्रती कहे गए हैं। यदि उसमें शामिल है ? ५ ार्याभिमत अथवा आर्य- सम्बन्ध का अभिप्राय विवाह सम्बन्धसे ही हो; प्रत्ययाभिधान नामक व्यवहारोंसे कौनसे व्यवहारों- जैसा कि म्लेच्छ-खण्डोंसे आए हुए म्लेच्छोंका का प्रयोजन है ? ६ और इन विशेषणोंका एकत्र चक्रवर्ती श्रादिके साथ होता है और फिर वे समवाय होना आवश्यक है अथवा पृथक-पृथक् म्लेच्छ मुनिदीक्षा तकके पात्र समझे जाते हैं, तब भी भी ये उचगोत्रके व्यंजक हैं ? जबतक ये सब देवतागण उच्चगोत्री नहीं रहेंगे; क्योंकि उनका बातें स्पष्ट नहीं होती, तबतक उत्तरको सन्तोषजनक विवाह-सम्बन्ध ऐसे दीक्षायोग्य साध्वाचारोंके साथ नहीं कहा जासकता, न उससे किसीकी पूरी तसल्ली नहीं होता है। और यदि सम्बन्धका अभिप्राय हो सकती है और न उक्त प्रश्न ही यथेष्टरूपमें हल उपदेश आदि दूसरे प्रकारके सम्बन्धोंसे हो तो हो सकता है। साथही इस कथनकी भी पूरी जाँच शक, यवन, शवर, पुलिंद और चाण्डालादिककी नहीं हो सकती कि गोत्र के इस स्वरूप-कथनमें तो बात ही क्या ? तिर्यच भी उच्चगोत्री हो जायँगे; पूर्वोक्त दोषोंकी सम्भावना नहीं है।' क्योंकि क्योंकि वे साध्वाचारोंके साथ उपदेशादिके सम्बन्ध कल्पनाद्वारा जब उक्त बातोंका स्पष्टीकरण किया को प्राप्त होते हैं और साक्षात् भगवान के समव जाता है तो उक्त स्वरूप-कथनमें कितने ही दोष सरण में भी पहुंच जाते हैं। इस प्रकार और भी आकर खड़े हो जाते हैं। उदाहरणके लिए यदि कितनी ही आपत्तियाँ खड़ी हो जाती हैं। 'दीक्षा' का अभिप्राय मुनिदीताका ही लिया जाय तो देवोंको उबगोत्री नहीं कहा जायगा, किसी
आशा है विद्वान् लोग श्रीवीरसेनाचार्य के उक्त पुरुषकी सन्तान न होकर औपपादिक जन्मवाले
स्वरूप-विषयक कथनपर गहरा विचार करके उन * जैसा कि तत्त्वार्थश्लोकबार्तिकमें दिये हुए भी
. छहों बातोंका स्पष्टीकरण करने आदिकी कृपा
भा- करेंगे जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है, जिससे विद्यानन्द प्राचार्य के निम्न वाक्य से प्रकट है :- यह विषय भले प्रकार प्रकाशमें आसके और उक्त __ "तेन गृहस्पस्य पंचाणुप्रतानि सप्तशीलानि गुणवत
प्रश्नका सबोंके समझ में पाने योग्य हल होसके। शिक्षामत-व्यपदेशमाजीति द्वादशदीक्षाभेदाः सम्यक्तपूर्वकाः सरलेखनान्ताश्च महात-तच्छीलवत् ।" वीरसेवामन्दिर सरसावा, ता. २१-११-१९३८