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________________ २४० अनेकान्त [प्रथम श्रावण, वीर-निर्वास सं० २४६५ होगा । परन्तु जब आगे रचनासम्बन्धी अनेक मोटी-मोटी सहित ® उद्धृत करते हुए, २९वी गाथाके स्थान पर अशुद्धियोको देखा जाता है तब यह कहनेका साहस उसकी छाया और छायाके स्थान पर गाथा उद्धृत नहीं होता । उदाहरणके लिये चौथे श्लोकमें प्रयुक्त हुए की गई है ! और पाँचवीं गाथाकी छायाके अनन्तर "तदहं चात्र जिल्यते" वाक्यको ही लीजिये, जो ग्रंथ- "अस्मिन् द्वौ खं शब्दं तयारुते अव्ययं वाक्याकारकी अच्छी खासी अज्ञताका द्योतक है और इस संकारार्थे वर्तते" यह किसी टोकाका अंश भी यों ही बातको स्पष्ट बतला रहा है कि उसका संस्कृत व्याकरण- उद्धत कर दिया गया है। जबकि दूसरी गाथाकि सम्बन्धी ज्ञान कितना तुच्छ था। इस वाक्यका अर्थ साथ उनकी टीकाका कोई अंश नहीं है । मोक्षपाहुडकी होता है “वह (दर्शनलक्षण) मैं यहाँ लिखा जाता है," ४ गाथाओंको छायासहित उद्धृत करनेके बाद "इति जबकि होना चाहिये था यह कि 'दर्शनलक्षण मेरे द्वारा मोक्षपाहुडे" लिखकर मोक्षपाहुडके कथनको समाप्त यहाँ लिखा जाता है' अथवा 'मैं उसे यहाँ लिखता हूँ।' किया गया है । इसके बाद ग्रंथकारको फिर कुछ खयाल और इसलिये यह वाक्य प्रयोग बेहूदा जान पड़ता है। आया और उसने 'तथा' शब्द लिखकर ६ गाथाएँ इसमें 'वदह' की जगह 'तम्मया' होना चाहिये था- और भी छायासहित उपत की हैं और उनके अनन्तर 'अहं' के साथ लिख्यते'का प्रयोग नहीं बनता, 'लिखामि' इति मोषपाहुर' यह समाप्तिसूचक वाक्य पुनः दिया का प्रयोग बन सकता है। जान पड़ता है ग्रंथकार है। इससे ग्रन्थकारके उद्धृत करनेके ढंग और उसकी 'जिल्प' और 'लिखामि' के भेद को भी, ठीक नहीं असावधानीका कितना ही पता चलता है। समझता था। (३) अब उद्धृत करने में उसकी अर्थशान-सम्बन्धी (२) इसीप्रकारकी अज्ञता और बेहूदगी उसके योग्यता और समझने के भी कुछ नमूने लीजियेनिम्न प्रस्तावनावास्यसे मी पाई जाती है, जो 'तत्वार्थ- (क) श्लोकवार्तिकमें द्वितीय सूत्रके प्रथम दो श्रद्धानं सम्यग्दर्शन' सूत्र पर श्लोकवार्तिकके २१ वार्तिकों वार्तिकोंका जो भाष्य दिया है उसका एक अंश इस को भाष्यसहित उद्धृत करनेके बाद "इति लोकवार्तिके प्रकार है:॥३॥" लिखकर अगले कथनकी सूचनारूपसे दिया "न अनेकार्थत्वादातूनां शेः श्रद्धानार्थत्वगतः । गया है: कथमनेकस्मिायें संभवत्पपि भवानार्थस्यैव गतिरितिवेत, ___"अब परमाहुरमध्ये वर्शनपाहुरे कुंवछंदस्वामिना प्रकरणविशेषात् । मोपकारणत्वं हि प्रकृतं तत्वाबदासम्बकत्वरूपं प्रतिपादयति ॥" नस्य युज्यते नालोचनादेरावरस्य।" .. इसमें तृतीयान्त 'स्वामिना' पदके साथ 'प्रतिपा- ग्रन्थकारने, उक्त वार्तिकोंके भाष्यको उद्धृत करते .वपति' का प्रयोग नहीं बनता-वह व्याकरणकी दृष्टि से हुए, इस अंशको निम्न प्रकारसे उद्धृत किया है, जो महाअशुद्ध है-उसका प्रयोग प्रथमान्त 'स्वामी' पदके अर्थक सम्बन्धादिकी दृष्टिसे बड़ा ही बेढंगा जान पड़ता साथ होना चाहिये था। यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहियेाषा प्रापः श्रुतसागरकी कापासे मिलती-जुलती दर्शनपाहुडकी पूरी ३६ गाथाओंको छाया- है-कहीं-कहीं साधारणसा भेद है।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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