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________________ वर्ष २, किरण १०] स्वामी पात्रकेसरी और विद्याभन्द - शेष पाहुडोंकी कुछ कुछ गाथाओंको छायासहित, पंचा- काट रक्खा है परन्तु 'युग्मम्' को नहीं काटा है ! 'युग्मम्' स्तिकाय और समयसारकी कतिपय गाथाओंको छाया पदका प्रयोग पहले ही व्यर्थ-सा था,तीसरे श्लोकके निकल तथा अमृचन्द्राचार्यकी टीकासहित उद्धृत किया गया जानेपर वह और भी व्यर्थ होगया है। क्योंकि प्रथम दो है । इन ग्रंथ-वाक्योंको उद्धृत करते हुए जो प्रस्तावना- श्लोकोंके साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं बैठता, वे दोनों वाक्य दिये गये हैं और उद्धरणके अनन्तर जो समाप्ति- अपने अपने विषय में स्वतंत्र है-दोनों मिलकर एक सूचक वाक्य दिये हैं उन्हें तथा मंगलाचरणादिके ३-४ वास्य नहीं बनाते-इसलिये 'युग्मम्' का यहाँ न काटा पद्योंको छोड़कर इस ग्रन्थमें ग्रंथकारका अपना और कुछ जाना चिन्तनीय है ! हो सकता है ग्रंथकारको किसी तरह भी नहीं है। पर तीसरा स्लोक अशुद्ध जान पड़ा हो, जो वास्तवमें ग्रन्थकारकी इस निजी जी और उसके उद्धृत अशुद्ध है भी, स्योंकि उसके तीसरे चरणमें ८ की करनेके ढंग श्रादिको देखनेसे साफ मालम होता है जगह ६ अक्षर हैं और पाँचवाँ अक्षर लघु न होकर कि वह एक बहुत थोड़ीसी सममबमका. साधारण गुरु पड़ा है जो छंदकी दृष्टिसे ठीक नहीं; और इसलिये श्रादमी था, संस्कृतादिका उसे यथेष्ट बोध नहीं था और उसने इसे निकाल दिया हो और 'युग्मम्' पदका निकान ग्रंथ-रचनाकी कोई ठीक कला ही वह जानता था। लना वह भूल गया हो ! यह भी संभव है कि एक ही तब नहीं मालूम किस प्रकारकी वासना अथवा प्रेरणासे आशयके कई प्रतिशावाक्य होजानेके कारण | उसे इस प्रेरित होकर वह इस ग्रंथके लिखनेमें प्रवृत्त हुआ है !! श्लोकका रखना उचित न ऊँचा हो, वह इसके स्थानपर अस्तु; पाठकोंको इस विषयका स्पष्ट अनुभव करानेके कोई दसरा ही श्लोक रखना चाहता हो और इसीसे उसने लिये ग्रंथकारकी इस निजी पूँजी आदिका कुछ दिग्दर्शन 'युग्मम्' तथा चौथे श्लोकके अंक '४' को कायम रक्खा कराया जाता है: हो; परन्तु बादको किसी परिस्थितिके फेरमें पड़कर वह (१) ग्रन्थका मंगलाचरण तथा प्रतिज्ञावाक्योंको उस श्लोकको बना न सका हो!। परन्तु कुछ भी हो, लिये हुए प्रारंभिक अंश इस प्रकार है ग्रन्थकी इस स्थितिपरसे इतनी सूचना जरूर मिलती है "ॐनमासिदेव अथ सम्यक्त्वप्रकाश बिल्यते ॥ कि यह ग्रन्थप्रति स्वयं ग्रंथकारकी लिखी हुई अथवा प्रबन्ध परमं देवं परमानंदविधाय। लिखाई हुई है। सम्यक्त्वनपणं वच्चे पूर्वाचार्यकृतं शुभम् ॥१॥ 'अथ सम्यक्त्वप्रकाश खिल्पते' इस वाक्यमें 'सम्यमोपमार्गे जिनरुक्तं प्रथमं दर्शनं हितं । क्त्वप्रकाश' शब्द विभक्तिसे शून्य प्रयुक्त हुआ है जो तहिना सर्वधर्मषु चरितं निष्फलं भवेत् ॥२॥ एक मोटी व्याकरण-सम्बन्धी अशुद्धि है। कहा जातस्मादर्शनपर्य जयननसंधुतं । सकता है कि यह कापी किसी दूसरेने लिखी होगी और सम्बक्त्यप्रकाशकं प्रंवं करोम हितकारकम् ॥३॥ पुग्मम् ॥ वही सम्यक्त्वप्रकाशके आगे विसर्ग(:)लगाना भूल गया तस्वार्थाधिगमे सूत्रे पूर्व दर्शनार्थ।। प्रविज्ञा-वाक्य इस प्रकारमोपमागें समुष्टि वदहं चात्र बिल्पते ॥en" सम्पपलबार बये, २ सम्यक्त्वप्रकाशकं प्रय, नं.३ के लोक को अंक तक काली स्याहीसे रोमियतदापात्र विल्यते।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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