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अनेकान्त
[प्रथम श्रावण,वीर निर्वाण सं० २४६५
महत्व न देते हुए, सम्यक्त्यप्रकाशवाले प्रमाणको ही ग्रंथप्रतिको देखने और परीक्षा करनेसे मुके पाठक जीक उक्त लेखके हवालेसे अपनाया था और मालूम हो गया कि इस ग्रंथके सम्बन्धमें जो अनुमान उसीके श्राधारपर, बिना किमी विशेष ऊहापोहके, पात्र किया गया था वह बिल्कुल ठीक है-यह ग्रंथ अनुमानकेसरी और विद्यानन्दको एक व्यक्ति प्रतिपादित किया से भी कहीं अधिक अाधुनिक है और ज़रा भी प्रमाण था । और इसलिये ब्रह्मनेमिदत्तके कथाकोश तथा पेश किय जाने के योग्य नहीं है । इसी बातको स्पष्ट हुमंचावाले शिलालेखके शेष दो प्रमाणीको, पाठक करने के लिये आज मैं इस ग्रंथको परीक्षा तथा परिचयको महाशयक न समझकर तात्या नेमिनाथ पांगलके अपने पाठकोंके सामने रखता हूँ। समझने चाहिये, जिन्हें पं. नाथरामजी प्रेमीने अपने
सम्यक्त्वप्रकाश-परीक्षा स्याद्वादविद्यापति विद्यानन्दि' नाम के उस लेख में अप- यह ग्रंथ एक छोटासा संग्रह ग्रंथ है, जिसकी पत्रनाया था.जिसकी मैंने अपने लेखमें बालोचना की संख्या ३७ है-३७चे पत्रका कुछ पहला पृष्ठ तथा थी। अस्तु ।
दूसरा पृष्ठ परा खाली है, और जो प्रायः प्रत्येक पृष्ठ पर - उक्त लेख लिखते समय मेरे सामने 'सम्यक्त्वप्रकाश: ६ पंक्तियाँ तथा प्रत्येक पंक्तिमें ४५ के करीब अक्षरोंको ग्रन्थ नहीं था-प्रयत्न करने पर भी मैं उसे उस समयः लिये हुए है । ग्रंथ पर लेखक अथवा संग्रहकारका कोई तक प्रास नहीं कर सका था और इसलिये दसरे सब नाम नहीं है और न लिखने का कोई सन्-संवतादिक ही प्रमाणोंकी आलोचना करके उन्हें निःसार प्रतिपादन दिया है । परन्तु ग्रंथ प्रायः उसीका लिखा हुआ अथवा करनेके बाद मैंने सम्यक्त्वप्रकाशक "श्लोकवानिके लिखाया हुआ जान पड़ता है जिसने संग्रह किया है विद्यानन्दिपरनामपानकेसरिस्वामिना यदुक्तं तब और ६०-७० वर्षसे अधिक समय पहलका लिखा हुआ खिल्बते" इस प्रस्तावना-वाक्यकी कथनशैली परसे मालूम नहीं होता । लायब्रेरीके चिट पर Conmes इतना ही अनुमान किया था कि वह ग्रन्थ बहुत कुछ fron Surat शब्दोंके द्वारा सूरतसे आया हुश्रा श्राधुनिक जान पडता है, और दूसरे स्पष्ट प्रमाणोंकी लिखा है और इसने दक्कनकालिज-लायब्रेरीके सन् रोशनीमें यह स्थिर किया था कि उसके लेखकको दोनों १८७५-७६ के संग्रहमें स्थान पाया है। श्राचार्यों की एकताके प्रतिपादन करनेमें ज़रूर भ्रम इसमें मंगलाचरणादि-विषयक पद्योंके बाद तत्त्वार्थहुअा है अथवा वह उसके समझनेकी किमी ग़लतीका श्रद्धानं सम्यग्दर्शनमितिसूत्रं ॥शा" ऐसा लिख कर इस परिणाम है। कुछ असे बाद मित्रवर प्रोफेसर ए. एन. सूत्रकी व्याख्यादिके रूप में सम्यग्दर्शन के विषय पर क्रमशः उपाध्याय जी कोल्हापुरके सत्प्रयत्नसे 'सम्यक्त्वप्रकाश' सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, दर्शनपाहुड, वह न० ७७७ की पूनावाली मूल प्रति ही मुझे देखनेके सूत्रपाहुड, चारित्रपाहुड, भावपाहुड, मोक्षपाहुड, पंचा. लिये मिल गई जिसका पाठक महाशयने अपने उस स्तिकाय,समयसार और बृहत् श्रादिपुराणके कुछ वाक्योंसन् १८६२ वाले लेखमें उल्लेख किया था। इसके लिये का संग्रह किया गया है। वार्तिकोंको उनके भाष्यसहित, मैं उपाध्याय जीका खास तौरसे आभारी हूँ और वे दर्शनपाहुडकी संपूर्ण ३५ माथाओंको (जिनमें मंगलाविशेष धन्यवादके पात्र हैं।
चरणकी गाथा भी शामिल है. !).उनकी छाया सहित,