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________________ वर्ष २, किरण. हरी साग-सब्जीका त्याग है, वे भी माग-सब्जीका त्याग करके ऐसे जीवों होकर उसकी प्रभावना स्थिर हो सके। . पर दया करनेका दावा करते हैं जो स्थावर हैं, खाने पीनेकी बस्तुचोंके त्यागका वर्णन अथात जो बिल्कुल भी हिलते-चलते नहीं हैं, जैनशास्त्रोंमें (१) अनती श्रावकके कथनमें, (२) जिससे उनमें जीवके होनेका निश्चय भी शास्त्रके अहिंसा अणुव्रतके कथनमें, (३) भोगोपभोगपरि कथनसे ही किया जा सकता है, आँखोंसे देखनेसे माणवतके कथनमें और (४) सचित्तत्यागनामकी नहीं; तो वे अन्यमती लोग जैनियोंके इस अद्भुत पाँची प्रतिमाके कथनमें मिलता है । हम भी इन दयाधर्मको देखकर इसकी खिल्ली (मजाक) ही चारों ही कथनोंको पृथक् पृथक् रूपसे खोजते हैं, उड़ाते हैं। जिससे यह विषय विल्कुल ही स्पष्ट हो जाय । इसके अलावा आजकल मनुष्यकी नन्दुरुस्ती- यहाँ यह बात जान लेनी जरूरी है कि जैनशाखोंमें के वास्ते साग-सब्जीका खाना बहुत ही जरूरी श्रावकके दो दर्जे कायम किये गये हैं, एक तो चौथा समझा जाने लगा है। फल खानेका रिवाज भी गुणस्थानी भविरतसम्यग्दृष्टि और दूसरा पंचम दिन दिन बढ़ता ही जाता है, तब हमारे बहुतसे गुणस्थानी भणुबती श्रावक । दूसरी तरह पर सब जैनी भाई भी अपने परिणाम इतने ऊँचे चढ़े न ही श्रावकोंके ग्यारह दर्जे व ग्यारह प्रतिमाएँ देख जिससे साग-सब्जीके त्यागके भाव उनमें ठहराकर चौथे गुणस्थानी अविरत सम्यग्दृष्टिकी पैदा हो जाते हों, एक मात्र रूढिके बस दूमरोंकी तो सबसे पहली एक दर्शन प्रतिमा ही कायमकी देखा-देखी ही साग-सब्जीके त्यागको अपनी गई है और दूसरी प्रतिमासे ग्यारहवीं तक दस और अपने बाल-बच्चोंकी तन्दुरुस्तीके विरुद्ध दर्जे पंचमगुणस्थानी अणुव्रती श्रावकके ठहराये बिल्कुल ही व्यर्थका ढकोसला समझ, ऐसे त्यागसे हैं। नफरत करने लग गये हैं, और संदेह करने लग गये हैं कि क्यों जैनधर्म में हमारे जैसे साधा (१) अविरत सम्यग्दृष्टि रण गृहस्थियोंके वास्ते भी साग-सब्जीका त्याग (१) विक्रमकी पहली शताब्दिके महामान्य जरूरी बताया है। ऐसे ऐसे विचारोंसे ही जैन- प्राचार्य श्रीकुन्दकुन्द स्वामी चरित्रपाहुड'में लिखते धर्म पर उनकी श्रद्धा ढीली होती जाती है, और हैं कि श्रद्धानका शुद्ध होना ही सम्यक्त्वाचरण यह वस्तुस्वभाव पर स्थित तथा समीचीन तत्त्वों- नामका पहला चारित्र है, और संयम ग्रहण करना की प्ररुपणा करने वाला जैनधर्म भी एक प्रकारका दूसरा संयमाचरण चारित्र है, अर्थात् सम्यक्त्वीके रूढ़ि-बाद ही प्रतीत होने लगा है । इन सब ही श्रद्धानका शुद्ध होना ही उसका चारित्र है, यह बातोंके कारण साग सब्जीके त्यागके वास्तविक श्रावकका पहला दर्जा है, जिसके वास्ते किसी भी स्वरूपको जैनशाखोंके कथनानुसार साफ साफ त्यागकी जरूरत नहीं है फिर जब वह संयम खोल देना बहुत ही जरूरी है, जिससे सब भ्रम प्रहण करता है तब उसका दूसरा दर्जा होता है, दूर हो जाय और जैनधर्मकी तात्विकता सिद्ध जो संयमाचरण चारित्र कहलाता है । यथा
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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