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________________ ५२२ अनेकान्त [अाषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६५ जिणणादिडिसुदं पढमं सम्माचरचारित। स्थावर किसी भी प्रकारके जीवोंकी हिंसाका विदिवं संबमचरणं जिगणावसदेसिपंतर त्यागी है, एक मात्र जिनेंद्रके वचनोंका श्रद्धानी (२) विक्रमकी दूसरी शतालिदो महान् है वह अविरत सम्यग्दृष्टि है । यथाआचार्य स्वामी समन्तभद्र रलकरंड श्रावकाचारके यो इन्दियेसु विरवो जो जीवे यावरे तसे वापि । निम्न श्लोकमें पहली प्रतिमाधारीकी बाबत लिखते हो साहदि जिणुतं सम्माइही भविरदो सो ॥२६॥ हैं कि 'जो सम्यग्दर्शनसे शुद्ध हो, संसार, शरीर- (५) प्राचीन प्राचार्य स्वामी कार्तिकेय अपने भोगसे उदासीन हो, पंचपरमेष्टीके चरण ही जिस- अनुप्रेक्षा प्रन्थमें लिखते हैं कि 'बहुत स जीवोंसे को शरण हों, तत्वार्थरूप मार्गका ग्रहण करनेवाला सम्मिलित मद्य मांस आदि निन्द्य द्रव्योंको जो हो, वह दार्शनिक श्रावक है - नियम रूपसे नहीं सेवन करता है वह दार्शनिक सम्पग्दर्शनशुद्धः संसारशरीरभोगनिर्विरणः। श्रावक है।' यथा-- पंचगुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्वपथगृह्यः ॥१३७॥ बहुतससमरिणनं मज मंसादिणिदिदं दव्वं । (३) दूसरी शताब्दिके महान् श्राचार्य श्रीउमा- जो णय सेवदि णियमा सो सणसावनो होदि ॥३२८॥ स्वातिने भी 'तत्वार्थसूत्र' में अविरतसम्यग्दृष्टि- (६) विक्रमकी दशवीं शताब्दिके आचार्य श्री के वास्ते किसी प्रकारके त्यागका विधान नहीं अमृतचन्द्रने 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' में श्रावककी किया है। किन्तु शंका कांक्षा विचिकित्सा ११ प्रतिमाका अलग अलग वर्णन न करते हुए अन्यमति प्रशंसा और अन्यमति-संस्तव ये उसके समुच्चयरूपसे ही लिखा है कि 'जो हिंसाको पांच प्रतीचार जरूर वर्णन किये हैं। इस छोड़ना चाहता है उसको प्रथम ही शराब, मांस, ही तरह पूज्यपाद स्वामीने सर्वार्थसिद्धि नामकी शहद, और पाँच उदम्बर फल त्यागने चाहिये। उसकी टीकामें, श्री अकलंकस्वामीने राजवार्तिक शहद, शराब, नौनी घी और मांस यह चारों ही नामके भाष्य और श्रीविद्यानन्द स्वामीने श्लोक- महाविकृतियाँ हैं-- अधिक विकारोंको धारण वार्तिक नामकी बृहत् टीकामें भी इन अतीचारोंके किये होते हैं, बतियोंको इन्हें न खाना चाहिये, सिवाय सम्यग्दृष्टिके वास्ते अन्य किसी त्यागका इनमें उस ही रंगके जीव होते हैं । ऊमर, कठूमर ये वर्णन नहीं किया है । तस्वार्थसूत्रका वह मूल दो उदम्बर और पिलखन, बड़ तथा पीपलके फल वाक्य इस प्रकार है ये त्रस जीवोंकी खान हैं, इनके खानेसे त्रस जीवोंशंकाकांचा विचिकित्साम्पष्टिप्रसंसासंस्तवाः समय- की हिंसा होतीहै यदि यह फल सूखकर अथवाकाल महरतीचाए: ७-१३ पाकर त्रस जीवोंसे रहित भी होजावें तो भी उनके (४) गोम्मटसार-जीव काँडमें भी अविरतसम्य- खानेसे रागादिरूप हिंसा होती है। शराब, मांस, ग्दृष्टिके वास्ते किसी त्यागका विधान नहीं किया है। शहद और पाँच उदम्बर फल ये सब अनिष्ट और बल्कि खले शब्दोंमें यह बताया है कि 'जो न तो दुस्तर ऐसे महा पापके स्थान हैं, इनको त्याग इन्द्रयों के ही विषयोंका त्यागी है और न त्रस वा कर ही बुद्धिमान जिनधर्म ग्रहण करनेके योग्य
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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