SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१० अनेकान्त निहित है । साहित्य प्रकाशन की ओर सम्पति-वैभवकी तूफानी लहरों पर तैरने वाले इस शान्त समाजका उतना लक्ष्य नहीं, जितने परिमाणमें सदुपयोग के लिए वीतराग भगवान्ने परिग्रहका स्वामी इन्हें बनाया है । दानकी सार्वा त्रिक विराटता भी उतनी जैन समाज में नज़र नहीं आती जितनी अपेक्षित है । धर्म प्रचार शैथिल्य को देखत हुए तो ऐसा मालूम पड़ता है कि जैनसमाजने प्रचार धर्म के नामसे जैनधर्मका पुकारा जाना गौरवकी बात नहीं समझी है या फिर श्रेणिक बिम्बसार के युवराज अभयकुमारकी पार संसार की सम्पति केमी है जासू तू कहत सम्पदा हमारी सो तो. साधुनि ये डारी ऐसे जैसे नाक सिनकी । जासू तू कहत हम पुण्य जोग पाई सो तो, नरककी साई है बढ़ाई डेढ़ दिन की ॥ घेरा मोहि परयो तू विचारे सुख श्रखिन को, माँखिन के चूटत मिठाई जैसे मिनकी । ऐते पर होय न उदासी जगवासी जीव, जगमें असाता है न साता एक छिनकी ॥ कोल्हू के बेलकी दशा पाटी बांधी लोचनि सो सकुंचे दबोचनि सों. कोचनी सोचसों निवेदे खेल तनको । धाइवो ही धन्धा अरु कन्ध माहि लग्यो जांत, बार बार भारत है कायर है मनको || भूख सहे प्यास सहे दुर्जनको त्रास सहै, थिरता न गहे न उसास लहे छिनको । पराधीन घूमे जैसे कोल्हूको कमेरो बैल, तैसो ही स्वभाव भैया जग वासी जनको ॥ [ फाल्गुण, वीर - निर्वाणसं २४६५ सीक विजय तथा धर्म प्रचारको निरी गाथा समझ रखा है । निःसन्देह वीरोंकी इस जातिने आज अपनेको व्यापार वीर-वैश्य ही समझ रक्खा है, पर उसी वीरत्व में आशाशाहकी (आततायी बनवीर से उदयसिंह के रक्षणकी) ज्योति नहीं, महाराणा प्रतापकी धर्म-टेक रखने में सहायक होने वाले भामाशाह के अपरिग्रह या परिग्रह परिभाषा व्रतकी शक्ति नहीं, क्या जैन समाज इन विशाल-आत्माओं के जीवन त्यागको उपेक्षणीय वस्तु ही मानता रहेगा ? दुर्जनका मन सरलको सुट कहै चकताको घीट कहै, बिन करे तासों कहे धनको अधीन है। क्षमको निबल कहै दमीको अदत्ति कहे, मधुर वचन बोलं तासों कहँ दीन है ॥ धरमीको दंभी निसप्रेहीको गुमानी कहे. तृपा घटाये तासों कहे भाग्यहीन है । जहां साधु गुण देखे तिनकों लगावे दोप. ऐसो दुर्जनको हिरो मलीन है || सूक्तिमुक्तावली ज्यों मतिहीन विवेक बिना नर साजि मतङ्गज ईंधन ढोवे । [ स्वर्गीय कविवर बनारसीदासजी ] कञ्चन भाजन धूल भरे शठ, मृढ़ सुधारस सों पग धोवै । वाहित काग उड़ावन कारण. डार महा मणि मूरख रोवे । यह दुर्लभ देह बनारसि, पाय अजान अकारथ खोवें ।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy