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बौद्ध तथा जैनधर्म पर एक सरसरी नज़र
वर्ष २, किरण ५ ]
हिन्दी तथा अन्य प्रान्तीय भाषाओं को भी इकदम अपना लिया था तथा समय समय पर व्यवहार कुशलता भी प्रदर्शित की थी । श्रशीक - जैसे कलिंग विजयके बाद उन्होंने हथियार नहीं फेंक दिये। हिंसा के जंगली सिद्धान्त में जहां पवित्रता लाई जा सकती थी. वहां उन्होने पवित्रता भी प्रदान की ।
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कलाकौशल तथा स्थायी ऐतिहासिक सामग्री प्रदान करनेके संबन्ध में दोनों धर्मोका एकसा महत्व है । श्रवणबेलगोल, खजराहा, आबू सम्मेदशिखर आदि तथा एलोरा, श्रजंता, सांची, सारनाथ, तक्षशिला आदि में आज इन दोनोंके कीर्तिस्तम्भ इनके जीवित होने के प्रमाण दे रहे हैं । जैनधर्मका शाश्वत शान्तिका प्रयास तो उनके सप्तभंगीनय सापेक्षावाद, स्याद्वाद या electinity के सिद्धान्त में छुपा हुआ है । वाद-प्रवादादिके द्वारा भी युद्धको वे गुंजाइश देना नहीं चाहते । प्रायः हरएक मत के प्रति उनकी विचार-सहिष्णुता स्याद्वाद से झलकती है बौद्धमतने जिसतरहसे राज्याश्रय में विस्तार किया उसी तरह से जैन-धर्मने भी अपना प्रसार किया। अशोक श्रेणिक, बिम्बमार, हर्षवर्धन आदि जैसे बौद्ध तथा उज्जैन के चण्डप्रद्योतको हरानेवाले सिंधुमौवीरके अधिपति उदायन, कलिंगपर विजय करनेवाले तथा आदि तीर्थकरकी प्रतिमा लेप्रानेवाले मगधेश नन्दिवर्धन, राजनीति -कुशल कलिंगवीर खारवेल, जिन्होंने मगध से बदला चुकाया; बादामीके चालुक्य महाकवि रविकीर्ति के राज्याश्रयी पुलकेशी द्वितीय, मोलंकी नरेश कुमारपाल, वीर-प्रवर राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष, गंगवंशके वीर सेनानी चामुण्डराय, गुजरात के अधीश्वर बलवीर, वीरधवल के युद्धाध्यक्ष मन्त्री पगलबन्धु नेपाल तथा वस्तुपाल, जिन्होंने आबूके इतिहास
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प्रसिद्ध मन्दिर बनवाये और जिन्होंने अपने पथभूष्ठ राजाके काका को भी जैनयतिके अपमानपर उनकी अँगुली कटवाकर दण्डित किया, बीकानेर के राजमन्त्री भागचन्द बच्छावत जिन्होने राजा के दुराग्रहको सिर नहीं नवाया व युद्धकर वीरगति प्राप्त की, तथा श्रावस्ती के सुहृदयध्वज आदि जैसे जैन नराधिपों, युद्ध वीरों और सामन्तोंने इन धर्मोंको बहुत उपकृत किया है। और उत्कृशानयोगकी तैयारी में जिनसेन, गुणभद्र अकलङ्क नेमिचन्द्र, समन्तभद्राचार्य, हेमचन्द्राचार्य, कुन्दकुन्दाचार्य, सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्र, धनपाल अमित गत्याचार्य, ही विजयसूरि आदि जैसे विद्वान भी पीछे नहीं थे। इन जैन यतियोंकी भद्रता तथा सचाईको देख उस युगके चक्रवर्ती सम्राटको भी हिंसा बन्द करनी पड़ी । पशु-पक्षियों को भी जैनयतियोंकी कुटीर के पास अभयप्रदान किया गया। भारत- दिवाकर प्रातः स्मरणीय गणावंश के महाराणा राजसिंह ने भी अहिंसाक अपने कृत्यंसि अति किया । व दीरविजय के स्वागतको फतहपुर सीकरी में सम्राट अकबर ने बड़ी तैयारी की थी, पर उन्होंने मांगी केवल हिंसा ।
आजका जैनसमाज नित्यशः देवदर्शन, स्वाध्याय रात्रिभोजनत्याग तथा अहिंसा के अनुपालन आदि द्वारा धर्मकी प्राण-प्रतिष्ठा कर रहा है। पर इन सबसे बढ़कर विशाल परिग्रह सामिग्री से ओत-प्रोत मन्दिरों में उसका खर्च हो रहा है, जिनमें जैन समाजके ही नहीं, किन्तु प्राणी मात्रके उद्धारक वीतराग भगवान् ऋषभदेव, पार्श्वनाथ, महावीर आदि विराजे है । आज विशालकाय मन्दिरोंका निर्माण कराने वालोंके लिए अपने नामको अमर बनाने के प्रचुर-साधन प्राप्त है। इसलिए कीर्ति ध्वजा फहराने के लिए दूसरी संस्थाओं की खोज अधिक बाँछनीय है, जहाँ जैन तथा नैनेतर समाजकी भलाई