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________________ ४४४ अनेकान्त [ ज्येष्ठ, वीर-निर्वाण सं०२४६५ अपने लिये ज्ञान-बर्द्धक एवं लाभप्रद हो । व्यर्थकी एक ऐमा गुण था, जिसने उसे महान सेनापतियोंवस्तुओंका मंग्रह न करो, ताकि फिर हिनकारी की पंक्ति में बैठने योग्य बना दिया था । वह आत्मचीजोंके लिये स्थान ही न रहे।" विश्वासी था, वह दूसरोंका मुँह देखा न होकर (२०) अपने बाहुओंका भरोसा रखताथा । उसने दूसरोंएक अत्तारकी दुकानमें गलाबके फल घोटे की सहायता पर अपनी उन्नतिका ध्येय कभी नहीं थे। किसी सहदयने पछा-"आप लोग बनाया और न अपने जीवनकी बागडोर किसीको उद्यानमें फने फने, फिर आपने ऐसा कौनमा मौंपी। जिस कार्यको वह स्वयं करनेमें असमर्थ अपराध किया, जिसके कारण आपको यह अमह्य पाता, उम कार्यको उसने कभी हाथ तक न लगाया। वेदना उठानी पड़ रही है।” कुछ फलोंने उत्तर देहली विजय करने पर विजित बादशाह महम्मद दिया-"शभेच्छ ! हमारा सबसे बड़ा अपराध शाह रंगीलेने उसे हाथी पर सवार कराके देहलीकी यही है कि हम एकदम हॅम पड़े ! दुनियाँमे हमाग मैर करानी चाही। नादिरशाह इससे पहले यह हँमना न देग्या गया। वह दुग्वियोंको देवकर कभी हाथी पर न बैठा था, उसने हाथी भारतमें ममवेदना प्रकट करती है दयाका भाव रग्वती है. ही श्राने पर देग्वा था । हाथीके होदेमें बैठने पर परन्त मुग्वियोंको देख ईर्ष्या करती है, उन्हें मिटाने नादिरशाहने आगेकी अोर झककर देखा तो हाथीको तत्पर रहती है । यही नियों का स्वभाव है।" की गर्दन पर महावत अंकुश लिये बैठा था। और कल फलोंने उनर दिया--"किमीके लिये नादिरशाहने महावतमे कहा-"त यहाँ क्यों बैठा मर मिटना यही तो जीवनकी मार्थकता है।" फल है ? हाथीकी लगाम मुझे देकर त नीचे उतरजा।" पिम रहे थे. पर परोपकारकी महक उनमें से जीवित महावतने गिड़गिड़ाते हए अर्ज़ किया-"हजर ! हो रही थी। महदय मनाय चपचाप ईर्ष्याल और हाथीके लगाम नहीं होती । बेअदबी मुश्राफ इसको स्वार्थी संसारकी ओर देख रहा था। हम फीलवान ही चला सकते हैं... ... ... ...!" (२१) "जिसकी लगाम मेरे हाथमें नहीं मैं उसपर नहीं नादिरशाह एक माधन-हीन दरिद्र परिवारमें बैठ सकता । मैं अपना जीवन दूसरोंके हाथों में जन्म लेने पर भी संसार-प्रसिद्ध विजेता हुआ है। देकर खतरा मोल नहीं ले सकता।" यह कहकर वह आपत्तियोंकी गोदमें पलकर दुःख-दारिद्रयके नादिरशाह हाथी परसे कूद पड़ा ! जो दूसरोंके हिण्डोलोंमें झलकर एक ऐसा विजेता हुआ है कि कन्धेपर बन्दुक रखकर चलानेके आदी हैं या जो विजय उमके घोड़ोंके टाप की धलके साथ-साथ दुमरोंके हाथकी कठपुतली बने रहते हैं, नादिरचलती थी। यद्यपि वह स्वभावसे ही कर, रक्तः शाह उनमेंसे नहीं था ! यही उसके जीवनका एक लोलप मनुष्य था। फिर भी स्वावलम्बन उममें सबसे बड़ा गुण था।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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