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श्रीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ
[सम्पादकीय ]
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बोध होता चला जाता है, अशानादि मल छंटता रहता समाधितंत्र-परिचय
है और दुःख-शोकादि अात्माको सन्तप्त करनेमें समर्थ
नहीं होते। माय मैं पूज्यपादके ग्रंथोंमेंसे 'समाधितंत्र' ग्रंथका कुछ इस ग्रन्थमें शुद्धात्माके वर्णनकी मुख्यता है और
' विशेष परिचय अपने पाठकोंको देना चाहता हूँ। बह वर्णन पज्यपादने आगम, युक्ति तथा अपने अन्तःयह ग्रंथ श्राध्यात्मिक है और जहाँ तक मैंने अनुभव
करणाकी एकाग्रता-द्वारा सम्पन्न स्वानुभवके बलपर भले किया है ग्रंथकारमहोदय के अन्तिम जीवनकी कृति है
प्रकार जाँच पड़ताल के बाद किया है। जैसा कि ग्रंथके उस समय के करीबकी रचना है जब कि प्राचार्य महो
निम्न प्रतिशा-वाक्यमे प्रकट है:दयकी प्रवृत्ति बाह्य विषयोंसे हटकर बहुत ज्यादा अन्त
श्रुतेन लिनेन यथास्मशक्ति मुंखी हो गई थी और श्राप स्थितप्रज्ञ जैसी स्थितिको
समाहितान्तः करणेन सम्यक् । पहुँच गये थे। यद्यपि जैनममा जमें अध्यात्म-विषय के
समीषय कैवल्यसुग्घस्पृहाणां कितने ही ग्रंथ उपलब्ध हैं और प्राकृतभाषाके 'ममय
विविक्तमात्मानमथाभिधास्ये ॥३॥ सार' जैसे महान एवं गद ग्रंथ भी मौजूद हैं परन्तु यह
ग्रंथका तुलनात्मक अध्ययन करनेमे भी यह मालम छोटा-सा संस्कृत ग्रंथ अपनी खास विशेषता रखता है। होता है कि इसमें श्रीकुन्दकुन्द-जैसे प्राचीन प्राचार्यों के इसमें थोड़े ही शब्दों द्वारा मूत्ररूपम अपने विषयका
श्रागम वाक्यांका बहुत कुछ अनमरण किया गया है। अच्छा प्रतिपादन किया गया है। प्रतिपादन शैली बड़ी
कुन्दकुन्दका --- "एगो मे सस्मदो अप्पाणाणसणल
क्षणो सेसा मे बाहिरा भावा सम्वे संजोगलक्षणा" ही सरल, सुन्दर एवं हृदय ग्राहिगी है; भाषा-मोठव . देखते ही बनता है और पद्य-रचना प्रमादादि गुगामे यह गाथा नियममारम नं० १०२ पर विशिष्ट है। इसीसे पढ़ना प्रारम्भ करके छोड़नेको मन मोक्षप्राभूतमें नं. ५६ पर पाई जाती है। इसमें यह नहीं होता-ऐसा मालम होता है कि समस्त अध्यात्म- बतलाया है कि-'मेरा श्रात्मा एक है-ख़ालिम है, वाणीका दोहन करके अथवा शास्त्र-ममुद्रका मन्थन उममें किमी दूसरेका मिश्रण नहीं-,शाश्वन है-कभी करके जो नवनीताऽमृत (मक्खन) निकाला गया है वह नष्ट होनेवाला नहीं-और शान दर्शन लक्षणवाला सब इसमें भरा हुअा है और अपनी मुगन्धसे पाठक. (शाता-द्रटा) है; शेष संयोग-लक्षणवाले समस्त पदार्थ हृदयको मोहित कर रहा है। इस ग्रंथ के पढ़नेसे चित्त मेरे अात्मासे बाह्य है-वे मेरे नहीं है, और न मैं बड़ा ही प्रफुल्लित होता है, पद-पद पर अपनी भूलका उनका हूँ ।'