SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [ज्येष्ट, वीर-निर्वाण सं०२४६५ यह वाक्य तो इस ग्रंथका प्राण जान पड़ता है ग्रंथके स्सर तथा स्वानुभवपूर्वक कथनका कितना ही सुन्दर कितने ही पद्य कुन्दकुन्दके 'मोक्षप्रामृत' की माथाश्रोंको श्रामास मिल सकता है । वस्तुतः इस ग्रंथमें ऐसी कोई सामने रखकर रचे गये हैं-ऐसी कुछ गाथाएँ पद्य भी बात कही गई मालूम नहीं होती जो युक्ति, श्रागम नं० ४, ५, ७, १०, ११, १२, १८, ७८, १०२ के तथा स्वानुभवके विरुद्ध हो। और इसलिये यह ग्रंथ नीचे फुटनोटोंमें उद्धृत भी की गई है, उनपरसे इस बहुत ही प्रामाणिक है। इसीसे उत्तरवर्ती श्राचार्योंने विषयकी सत्यताका हरएक पाठक सहज ही में अनुभव इसे खूब अपनाया है। परमात्मप्रकाश और ज्ञानार्णवकर सकता है । यहाँ पर उनमेंसे दो गाथाएँ और एक जैसे ग्रंथोंमें इसका खुला अनुसरण किया गया है। गाथा नियमसारकी भी इस ग्रंथके पद्यों-सहित नमूनेके जिसके कुछ नमूने इस ग्रंथके फुटनोटोंमें दिखाये तौर पर नीचे उद्धृत की जाती हैं: गये हैं। जं मया दिस्सदे रूवं तरण जाणादि सम्वहा । __चूंकि ग्रन्थमें शुद्धात्माके कथनकी प्रधानता है जाणगं दिस्सदे णं तं तम्हाजपेमि केणहं ॥ मोक्ष०२॥ और शुद्धात्माको समझने के लिये अशुद्धात्माको जानने यम्मया रयते रूपं तत्र जानाति सर्वथा । की भी ज़रूरत होती है, इसीसे ग्रन्थमें आत्माके बहिराजावच एयते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम् ॥ समा०१॥ त्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ऐसे तीन भेद करके उनका स्वरूप समझाया है। साथ ही, परमात्माको उपाजो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्यए सकज्जम्मि । देय (आराध्य), अन्तरात्माको उपायरूप श्राराधक और जो जम्गदि बवहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्ने । मो०३१॥ बहिरात्माको हेय (त्याज्य) ठहराया है । इन तीनों प्रात्म भेदोंका स्वरूप समझानेके लिये अन्थमें जो कलापूर्ण म्यवहारे सुषुप्तो यः स जागांत्मगोचरे । तरीका अख्तियार किया गया है वह बड़ा ही सुन्दर एवं जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन्सुषुप्सरचारमगोचरे ॥ समा० ७॥ स्तुत्य है और उसके लिये ग्रन्थको देखते ही बनता है। यहाँ पर मैं अपने पाठकोंको सिर्फ उन पदोंका ही परिचय णियभावं ण वि मुबइ परभावं सेव मेहह केई। करा देना चाहता जो बहिरात्मादिका नामोल्लेख अथवा जाणदि पस्सदि सर्व सोहं इदिचितपणाणी नियम०१७ निर्देश करने के लिये ग्रन्थमें प्रयुक्त किये गये हैं और यदप्रामु म गृहाति गृहीतं नापि मुञ्चति । जिनसे विभिन्न श्रात्माओंके स्वरूप पर अच्छा प्रकारा जानाति सर्वथा सर्व तत्स्वसंवेचमस्म्यहम् ॥ समा० २०॥ पड़ता है और वह नयविवक्षाके साथ अर्थपर दृष्टि रखते इससे उक्त पद्य नं. ३ में प्रयुक्त हुश्रा 'श्रुतेन' पद हुए उनका पाठ करनेसे सहज ही में अवगत हो जाता बहुत ही सार्थक जान पड़ता है । 'लिङ्गेन' तथा 'समा- है। इन पदोंमेंसे कुछ पद ऐसे भी हैं जिनका मूल प्रयोग हितान्तापरणेन' पद भी ऐसी ही सार्थक हैं। यदि द्वितीयादि विभक्तियों तथा बहुवचनादिके रूपमें हुआ है कुन्दकुन्दके समयसारकी गाथा नं०४३८ से ४४४ तकके परन्तु अर्थावबोधकी सुविधा एवं एकरूपताकी दृष्टिसे कथनकी इस ग्रंथके पद्य नं०८७,८८के साथ तुलना की उन्हें यहाँ प्रथमाके एक क्वनमें ही रख दिया गया है। जाय तो पज्यपादकी विशेषताके साथ उनके युक्तिपुर- प्रस्तु; बहिरात्यादि-निदर्शकले.पय क्रमशः निम्न प्रकार
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy