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________________ वर्ष २, किरण] . . . श्रीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ है। उनके स्थान-सूचक-पद्याङ्क भी साथमें दिये जाते तात्मा ३, ७३; परः ४, ८६, ९५, परमः ४, ३१,९८; परमात्मा ५,६,१७,२७, ३० प्रतिनिर्मलः ५; निर्मलः(१) पहिरात्म-निदर्शक पर केवलः-शुद्धः-विविक्तः प्रभुः-परमेष्ठी-परास्मा-ईश्वरः । बहिः ४; बाहेरात्मा ५, ७, २७; शरीरादौ जातात्म. अंन्ययः ६, ३३, अनन्तानन्तधीशक्तिः अचल स्थितिः भ्रान्तिः ५; अात्मजानपराङ मुखः ७; अविद्वान ८ मूढः स्वसंवेद्यः ६,२०,२४, निर्विकल्पकः १६, अतीन्द्रियः१०,४४,४७;अविदात्मा ११; देहे स्वबुद्धिः १३; मूढात्मा अनिर्देश्यः २२; बोधात्मा २५, ३२; सर्वसंकल्पवनितः २६,५६,५८, ६०; उत्पन्नात्ममतिदेहे ४२; परत्राहम्मतिः २७; परमानन्दनिर्वृतः ३२; स्वस्थात्मा ३६; उत्तमःकायः ४३; देहात्मदृष्टिः ४६, ६४; अविद्यामयरूपः ५३; वाक- ४०; निष्ठितात्मा ४७; सानन्दज्योतिरुत्तमः ५१ विद्यामयशरीरयोः भ्रान्तः ५४; बालः ५५; पिहितज्योतिः ६० रूपः ५३; केवलज्ञप्तिविग्रहः ७०; अच्युतः ७६; परमं पदअबुद्धिः ६१ ६६; शरीरकंचुकेन संवृतज्ञानविग्रहः ६८; मात्मनः८४,८६, १०४; परं पदं८५ परात्मज्ञानमम्पम्नः अनात्मदर्शी ७३, ६३; दृढात्मबुद्धिदेहादी ७६; श्रात्म. ८६; अवाचा गोचरं पदं । गोचरे सुषुप्तः ७८; मोही ६०; अनन्तरजः ६१, अनीण- यह त्रिधात्मक पदावली त्रिधात्मा के स्वरूपको व्यक्त दोषः-सर्वावस्थाऽऽत्मदर्शी ६.३; जडः १०४ । करने के लिये कितनी सुन्दर एवं भावपर्ण है उसे बत(२) अन्तरात्म-निदर्शक पद लानेकी ज़रूरत नहीं-सहृदय पाठक सहज हीमें उमका अन्तः ४, १५,६०, श्रान्तरः ५ चित्तदोषात्मऽऽवि. अनुभव कर सकते हैं । हाँ.इतना जरूर कहना होगा कि भ्रान्तिः ५, स्वात्मन्येवात्मधीः १३; बहिरव्यापृतेन्द्रियः एक छोटेसे ग्रंथमें एक ही पात्म विषयको स्पष्ट करने के १५; देहादी विनिवृतात्मविभ्रमः २२;अन्तरात्मा२७,३०; लिये इतने अधिक विभिन्न शब्दोंका ऐसे अच्छे ढंगसे तत्वज्ञानी ४२, स्वस्मिन्नहम्मतिः ४३, बुधः ४३, ६३-६६ प्रयोग किया जाना, निःसंदेह, साहित्यकी दृष्टि से भी कुछ श्रात्मदेहान्तरज्ञानजनिताल्हादनिर्वृतः ३४ श्रवबुद्धः कम महत्वकी चीज़ नहीं है। इससे ग्रंथकार महोदय के ४४;आत्मवित् ४७; स्वात्मन्येवात्मदृष्टिः ४६ नियनेन्द्रियः रचना-चातुर्य अथवा शन्द-प्रयोग-कौशल्यका भी ५१; श्रारब्धयोगः-भावितात्मा ५२; वाकशरीग्योरभ्रान्तः कितना ही पता चल जाता है। ५४; प्रात्मतत्त्वे व्यवस्थितः ५७; प्रबुद्धात्मा ६०; बहि- समाधितंत्रमें और क्या कुछ विशेष वर्णन है उस ावृत्तकौतुकः ६०; दृष्टात्मा७ ३, ६.२ श्रात्मन्येवात्मधीः सबका संक्षिम परिचय ग्रन्थ के साथमें दी हुई विषयानुक्र. ७७ व्यवहारे सुषप्तः ७८; दृष्धात्मतत्त्वः-स्वभ्यस्तात्मधीः मणिकाको देखनेसे महजम ही मालम हो सकता है। वहीं ८० मोनार्थी ३: योगी८६.३०० भेदः१२ अात्म- पर कोष्टकमें मूल श्लोकोंके नम्बर भी दे दिये है । यहाँ पर दर्शी १२; शातात्मा ६४; मुनिः १०२, विद्वान, १०४; उसकी पुनरावृत्ति करके प्रस्तावना लेखके कलेवरको परात्मनिष्ठः १०५। बढ़ानेकी जरूरत मालम नहीं होती । और न ग्रन्थविषय (१) परमात्म-निदर्शक पद का दूसरे तत्सम ग्रन्थों के माथ तुलनाका अपनेको यथेष्ट अक्षयानन्तयोधः १, सिद्धात्मा ?; अनीहिना-तीर्थ अवकाश ही प्राप्त है । अतः जो तुलना ऊपर की जाचुकी कृत् २: शिव:-धाना-सुगतः-विष्णुः निनः२, ६: विवि. है उभी पर मनोष रखते हुए शेषको छोड़ा जाना है।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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