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कथा कहानी
ले-अयोध्याप्रसाद गोयलीय ] .
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(१८)
हो गए। पास ही गुरुदेव बैठे थे। पूछा-"वत्स ! किन्हीं प्रात्म-ध्यानी मुनिराजके पाम एक मोक्ष- क्या हुआ ?" शिष्यने कहा-"गुरुदेव ! आज लोलुप भक्त बैठा था। उसे अपने धर्मरत होनेका ध्यानमें दाल-बाटी बनानेका उपक्रम किया था । अभिमान था । गृहस्थ होते हुए भी अपनेमें आत्म- आपके चरणकमलोंके प्रतापसे ध्यान ऐसा अच्छा संयमकी पूर्णता समझता था । मुनिराजके दर्शनार्थ जमा कि यह ध्यान ही न रहा कि यह सब मनकी कुछ स्त्रियाँ बाई तो संयमाभिमानी भक्तसे उनकी कल्पनामात्र है । मैं अपने ध्यानमें मानों सचमुच ही
और देखे बिना न रहा गया । पहली बार देखने दाल-बाटी बना रहा था कि मिचें कुछ तेज होगई पर मुनिराज कुछ न बोले, किन्तु यह देखनेका क्रम और खाते ही सीकारा जो भरा तो ध्यान भंग जब एक बारसे अधिक बार जारी रहा तो मुनिराज होगया । ऐसा उत्तम ध्यान आजतक कभी न जमा बोले-वत्स! प्रायश्चित लो!"
था गुरूदेव ! मुझे वरदान दो कि मैं इससे भी कहीं "प्रभो ! मेरा अपराध ?"
अधिक ध्यान-मग्न हो मः।" गुरुदेव मुस्कराकर "ओह ! अपराध करते हुए भी उमे अपराध बोले--"वत्म ! प्रथम तो ध्यानमें-परमात्मा, नहीं समझते, वत्स ! एक बार तो अनायास किमी मोक्ष, सम्यक्त्व, आत्म-हितका चिंतन करना की ओर दृष्टि जा सकती है, किन्तु दोबारा तो चाहिये था, जिससे अपना वास्तवमें कल्याण विकारी नेत्र ही उठेंगे । और आत्मामें विकार होता, ध्यानका मुख्य उद्देश्य प्राप्त होता। और आना यही पतनका श्रीगणेश है । आत्म-संयमका यदि पूर्वसंचित संस्कारोंके कारण सांसारिक अभ्यासी प्रायश्चित द्वारा ही विकारों पर विजय मोह-मायाका लोभ मॅबरण नहीं हो पाया है तो प्राप्त कर सकता है। मोक्ष-लोलुप भक्तको तब ध्यानमें खीर, हलुवा, लइ, पेड़ा मादि बनाए होते अपने संयमकी अपूर्णत प्रतीत हुई।
जिससे इस वेदनाके बजाय कुछ तो स्वाद प्राप्त
हुआ होता । वत्म ! स्मरण रक्खो, हमारा जीवन, एक ध्यानाभ्यासी शिष्य ध्यान-मग्न थे कि हमारा मस्तिष्क सब सीमित हैं। जीवनमें और सीमारेकी-सी भावात्रा करते हुए ध्यानसे विचलित मस्तिष्कमें ऐसे उतम पदार्थोका संचय करो जो