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________________ २७६ अनेकान्त [वर्ष २, किरण २ क्या कह रही है, कहाँ जा रही है ? रात के वक्त, का कण्ठ भी आज पराया बन रहा था ! ऐसी बुखार की हालत में | सुबह ही सं तो वह दिनों का फेर इसी को कहते हैं ! तप रही है-आग की तरह ! सात, आठ दिन से डाकिया ने उसकी आँखों में पढ़ा-क्या रोज हरारत आ जाती थी! लेकिन आज की-सी माज मनियार्डर पाया है ?'-मन की जिज्ञासा बातें तो..! आँखों में खेल रही थी! मीनारों उठा ! उसके भाई-बहिन भी जगकर डाकिया की वाणी स्वतन्त्र होगई ! वह रूपा उसका साथ देने लगे । रात की नीरवता में वह की गीली दृष्टि न देख सका! . टूटी झोपड़ी करुण-क्रन्दन से प्रकम्पित हो उठी। हाँ ! आज तुम्हारा मनि आर पाया है पर ... ! रूपा की नींद तोड़ने के लिए वह रूपा!'-डाकिया ने चमड़े के थैले और हाथ की 'कुछ नहीं' सिद्ध हुई ! चिट्टियों पर नजर डालते हुए कहा। ___क्योंकि वह मूर्छित थी, अचेत थी, सज्ञा-शून्य लेकिन · यह उसका वचन था, या चन्द्रोदयथी! थर्मामेटर होता तो बतलाता-उसे एक सौ रस ?-मरती हुई रूपाने अपने को आलोकमयपांच-सादे, पाँच डिग्री फ्रीवर था। संसार में पाया ! मगर उसे देखने वाला कौन ? __ 'अरे ! उसका मनि आर्डर आगया,"छुन्नों X X X X उसकी कब की रो रही है, मीना को बाजार भेज ' लेकिन आज यह क्या बात ?-न रूपा कि- कर अनाज!'-सैकड़ा विचार रूपाके मस्तिष्क बाड़ों से झांक रही है-न मीना पाया ! वह में दौड़ गए! वह उठ बैठी। दर्वाजे के सामने प्रागया, मगर फिर भी सन्नाटा ! उसका कण्ठ फूटा-'लामो, अंगूठा करूँ !' यह मामला क्या है ?-सप्ताह-भर से तो वह ! 'मगर मैं मनिआर्डर को डाकखाने भूल पाया उसे याद आई-'यह सब आज खायेंगे-क्या" हूँ ! अभी लाया.. . .."ओ"गरीबी! हर्ष-भरे स्वर में डाकिया ने उत्तर दिया, और ____उसने अपनी दशा उससे मिलाई ! दोनों में तुरन्त उस झोंपड़ी से बाहर होगया! कोई फर्क, कोई अन्तर नहीं ! उसके घर भी ! 'यह लो, दश रुपया!'-डाकियाने रुपये रूपा वह यहाँ इतनी दूर पड़ा है ! उस क्या खबर ? ' के कांपते हाथों में धर दिए! 'अँगूठा !'-रूपा बोली। ___ उससे न रहा गया ! भागे बढ़ा, किवाहों पर। 'नहीं, कानून बदल गया है, अब अँगूठा नहीं हल्का धका दिया, वह खुल गया ! फिर उसने जो कराया जाता!-डाकिया ने जवाब दिया। कुछ देखा, वह उस-उसके दयालु-मन की-हिला मगर वह भोली रूपा इस रहस्य से अधिदित देने के लिये काफी था! ही रही, कि मनिपार्डर उसका नहीं पाया. रुपये रूपा-मरी-सी, सिसकती-सी, आँखें फाड़े डाकिया ने अपनी जेब से दिये है ! उसकी ओर देख रही है! बचे इधर-उधर उसके डाकिया प्रसन्न था-उसने आज एक परिबराबर पड़े हैं-रोते, मुनमुनाते हुए-से! वार का संरक्षण किया था ! डाकिया कॉप गया! वह बढ़ा"! पीछे से किसी ने गायारूपा ने बोलना चाहा पर बोल न सकी! उस 'घायल की गति घायल जाने और न जाने कोय!'
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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