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________________ - -- अनेकान्त [ज्येष्ट, वीर-निर्वाण जो वैराग्य इन कड़ियोंमें छलक रहा है, वह एकाग्रता चित्रित थी। चेहरा गोलाकार, होंठ मैंने उनके दो वर्षके गाढ़ परिचयसे प्रत्येक क्षणमें पतले, नाक न नोकदार और न चपटी,.शरीर - उनमें देखा है। उनके लेखोंकी एक असाधारणता दुर्बल, कद मध्यम, वर्ण श्याम, और देखनेमें वे यह है कि उन्होंने स्वयं जो अनुभव किया वही शान्तमूर्ति थे। उनके कंठ में इतना अधिक माधुर्य लिखा है । उसमें कहीं भी कृत्रिमता नहीं । दूसरेके था कि उन्हें सुननेवाले थकते न थे उनका चेहरा ऊपर छाप डालनेके लिये उन्होंने एक लाइन हंसमुख और प्रफुल्लित था। उसके ऊपर अंतराभी लिखी हो यह मैंने नहीं देखा। उनके पास नंदकी छाया थी । भाषा उनकी इतनी परिपूर्ण थी. हमेशा कोई न कोई धर्म पुस्तक और एक कोरी कि उन्हें अपने विचार प्रगट करते समय कभी कापी पड़ी ही रहती थी। इस कापीमें वे अपने कोई शब्द ढूँढना पड़ा हो, यह मुझे याद नहीं । मनमें जो विचार आते उन्हें लिख लेते थे। ये पत्र लिखने बैठते तो शायद ही शब्द बदलते हुए विचार कभी गद्यमें और कभी पद्यमें होते थे। मैंने उन्हें देखा होगा । फिर भी पढ़नेवाले को यह इसी तरह 'अपूर्व अवसर' आदि पद भी लिखा मालूम न होता था कि कहीं विचार अपूर्ण हैं हुआ होना चाहिये। अथवा वाक्य-रचना त्रुटित है, अथवा शब्दोंके खाते, बैठते, सोते और प्रत्येक क्रिया करते चुनावमें कमी है। हुए उनमें बैराग्य तो होता ही था। किसी समय यह वर्णन संयमीके विषयमें संभव है । बाह्याउन्हें इस जगत्के किसी भी वैभव पर मोह हुआ डंबरसे मनुष्य वीतरागी नहीं हो सकता । वीतहो यह मैंने नहीं देखा। रागता आत्माकी प्रसादी है । यह अनेक जन्मोंके उनका रहन-सहन मैं आदर पूर्वक परन्तु सू- प्रयत्नसे मिल सकती है, ऐसा हर मनुष्य अनुभव दमतासे देखता था। भोजनमें जो मिले वे उसीसे कर सकता है। रागोंको निकालनेका प्रयत्न करने मंतुष्ट रहते थे। उनकी पोशाक सादी थी । कुर्ता, वाला जानता है कि राग-रहित होना कितना कठिन अँगरखा, खेस, सिल्कका डुपट्टा और धोती यही है। यह राग-रहित दशा कविकी स्वाभाविक थी, उनकी पोशाक थी। तथा ये भी कुछ बहत साफ ऐसी मेरे ऊपर छाप पड़ी थी। या इस्तरी किये हुए रहते हों, यह मुझे याद नहीं। मोक्षकी प्रथम सीढ़ी वीतरागता है । जब तक जमीन पर बैठना और कुर्सी पर बैठना उन्हें दोनों जगतकी एक भी वस्तुमें मन रमा है तब तक मोक्षही समान थे। सामान्य रोतिसे अपनी दुकानमें की बात कैसे अच्छी लग सकती है ? अथवा वे गद्दीपर बैठते थे। अच्छी लगती भी हो तो केवल कानोंको ही___ उनकी चाल धीमी थी, और देखनेवाला समझ ठीक वैसे ही जैसे कि हमें मर्यके समझे बिना सकता था कि चलते हुए भी वे अपने विचारमें किसी संगीतका केवल स्वर ही अच्छा लगता है। मग्न हैं। माँखमें उनकी चमत्कार था । वे अत्यन्त ऐसी केवल कर्ण-प्रिय क्रीड़ामेंसे मोक्षका अनुसरण . तेजस्वी थे। विहलता जरा भी न थी। आँखमें करने वाले पाचरणके पानेमें बहुत ममय बीत
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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