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________________ १६८ अनेकान्त [मार्गशिर वीर-निर्वाण सं० २४६५ पृथक किया गया है, अतः सब नवीन जाति-च्युत वह रक्त जितना पहुँचेगा, उसमें उसके रोगी यही चाहते हैं कि हमारा रोटी-बेटी व्यवहार सब कीटाणुभी उतने ही प्रवेश कर जाँयेंगे । रक्त वंश जाति-सन्मानितोंमें ही हो, जातिच्युतसं व्यवहार में प्रवाहित होता रहता है, इस लिये रोग भी करनेमें हेटी होगी । जातिवाले उनसे व्यवहार वंशानुगत चलता रहता है। पापका रक्तसे सम्बन्ध करना नहीं चाहते और वह जाति-च्युत, जाति नहीं, यह आत्माका स्वतन्त्र कर्म है, अतः वही सन्मानितोंके अलावा जाति-च्युतोंसे व्यवहार नहीं उसके फलाफलको भोग सकता है, दूसरा नहीं । करना चाहते । अतः इसी परेशानीमें वह व्याकुल जैन-धर्ममें तो पापीसे नहीं, पापीके पापसे हुए फिरते हैं। घृणा करनेका आदेश है। पापी तो अपना अहित कालेपानी और जीवनपर्यन्त सजाकी अवधि- कर रहा है इसलिये वह क्रोधका, नहीं अपितु तो २० वर्ष है; और अपराधी नेकचलनीका प्रमाण दयाका पात्र है । जो उसने पाप किया है, उसका दे तो, १४ वर्षमें ही रिहाई पासकता है; किन्तु वह अपने कर्मानुसार दण्ड भोगेगा ही, हम क्यों सामाजिक दण्डकी कोई अवधि नहीं। जिस तरह उसे सामाजिक दण्ड देकर धार्मिक अधिकारसे संसारके प्राणी अनन्त हैं उसीप्रकार हमारी रोकें और क्यों अपनी निर्मल आत्माको कलुषित समाजका यह दण्डभी अनन्त है। पाप करने करें ? पापीको तो और अधिक धर्म-साधन करनेकी वाला प्राणी कोटानिकोट वर्षोंकी यातना सहकर आवश्यकता है। धर्म-विमुख कर देनेसे तो वह ७ वे नर्कसे निकलकर मोक्ष जा सकता है, किन्तु और भी पापके अन्धेरे कूपमें पड़ जायगा । उसके वंशज उसके अपराधका दण्ड सदैव पाते जिससे उसका उद्धार होना नितान्त मुश्किल है। रहेंगे—यही हमारे समाजका नियम है। तभी तो जैन-धर्मके मान्य ग्रन्थ पंचाध्याईमें __ कुछ लोग कहा करते हैं कि जिस प्रकार लिखा है:उपदंश, उन्माद, मृगी, कुष्ट आदि रोग वंशानु सस्थितीकरणं नाम परेषां सहनुग्रहात् । क्रमिक चलते हैं, उसी प्रकार पापका दण्ड चलता है। कितु उन्हें यह ध्यान रखना चाहिये कि रोग __ भृष्टानां स्वपदात् तत्र स्थापनं तत्पदे पुनः ।। टा" के साथ यदि पापका सम्बन्ध होता तो जिस पापके अर्थात-धर्म-भृष्ठ और पद-न्युत प्राणियोंको फल स्वरूप रावण नर्कमें गया, उसीके अनुसार दया करके धर्म में लगा देना, उसी पदपर स्थिर उसके भाई-पुत्रोंको भी नर्कमें जाना पड़ता, किन्तु करदेना-यही स्थितिकरण है। ऐसा न होकर वह मोक्ष गये । उसके हिमायती बन जिस धर्मने पतितोंको, कुमार्गरतोंको, धर्मकर पापका पक्ष लेकर लड़े, किन्तु फिरभी वह तप विमुखोंको, धर्ममें पुन: स्थिर करनेका आदेश करके मोक्ष गये । यदि रोग और पापका एकसा देते हुए, उसे सम्यक् दर्शनका एक अंग कहा है। सम्बन्ध होता तो पिता नर्क और पुत्र स्वर्ग न और एकभी अंग-रहित, सम्यकदृष्टि हो नहीं जाता । रोगोंका रक्तसे सम्बन्ध है, जिसमें भी सकता, फिर क्यों उसके अनुयायी जाति-न्युत
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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