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________________ जैन समाज क्यों मिट रहा है ? वर्ष २ किरण २ ] अपराधीको दण्ड दिया जाय, ताकि स्वयं उसकी तथा औरों को नसीहत हो और भविष्यमें वैसा अपराध करनेका किसीको साहस न होयह तो कुछ न्याय संगत बात जँचती भी है; किन्तु अपराध की पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्ष वही दण्ड लागू रहे― चह रिवाज बर्बरताका यांतक और मनुष्य समाज के लिये कलंक है । नानी दान करे और धेवता स्वर्गमें जाय - इस नियमका कोई समर्थन नहीं कर सकता । नाम कर जैनधर्म तो इस नियमका पक्का विरोधी है। जैनधर्मका तो सिद्धान्त है कि, जो जैसे शुभ शुभ कर्म करता है वही उसके शुभ-अशुभ फल का भोगने वाला होता है किसी अन्यको उसके शुभ-अशुभ कर्मका फल प्राप्त नहीं हो सकता । यही नियम प्रत्यक्ष भी देखनेमें आता है कि जिसको जो शारीरिक या मानसिक कष्ट है, वही उसको सहन करता है. कुटुम्बीजन इच्छा होने पर भी बटा नहीं सकते । राज्य-नियम भी यही होता है, कि कितना ही बड़ा अपराध क्यों न किया गया हो, केवल अपराधीको सजा दीजाती है। उसके जो कुटुम्बी अपराध में सम्मलित नहीं होते, उन्हें दण्ड नहीं दिया जाता है। किन्तु, हमारी समाजका चलनही कुछ और है । जिसने अपराध किया, वह मरकर अपने श्रागे के भवोंमें शुभ कर्म करके चाहे महान पदको प्राप्त क्यों न होगया हो, किन्तु उसके वंश में होने वाले हज़ारों वर्षों तक उसके वंशज उसी दण्डके भागी बने रहेंगे, जिन्हें, न अपराधका पता है * अवश्यमेव भोगतव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । १६७ और न यही मालूम है कि किसने कब अपराध किया था । और चाहे वह कितने ही सदाचारो धर्म निष्ठ क्यों न रहें, फिर भी वह निम्न ही समझे जाएँगे, बलासे उनके आचरण और त्यागकी तुलना उनसे उच्च कहे जाने वालोंसे न हो सके. फिर भी वह अपराधीके वंश में उत्पन्न हुए हैं, इसलिये लाख उत्तम गुगा होने पर भी जघन्य हैं । क्या खूब !! जैन समाज में प्राचीन और नवीन दो तरह के ऐसे मनुष्य हैं जो जातिसं पृथक समझे जाते हैं । प्राचीन तो वे हैं जो इम्सा, समैया, और विनैकवार आदि कहलाते हैं, और न जाने कितनी सदियोंसे न जाने किस अपराधके कारण जाति-च्युत चले जाते हैं। नवीन वे हैं जो अपनी किसी भूल या पंच-पटेलोंकी नाराजगीके कारण जातिसे पृथक होते रहते हैं । प्राचीन जातिच्युतोंकी तो धीरे-धीरे समार्जे बन गई हैं, वह अपनी २ जातियोंमें रोटी-बेटी व्यवहार कर लेते हैं, उन्हें विशेष असुविधा प्राप्त नहीं होती, किन्तु नवीन जातिच्युतों को बड़ी आपतियों का सामना करना पड़ता है; क्योंकि उनके तो गाँव में बमुश्किल कहीं-कहीं इकेले-दुकेले घर होते हैं। उनसे पुश्तेनी जाति-च्युत तो रोटी-बेटी व्यवहार करते नहीं । क्योंकि उनकी स्वयं जातियाँ बनी हुई है और वह भी रूढ़ीके अनुसार दूसरी जाति से रोटी-बेटी व्यवहार करना अधर्म समझते हैं। और नवीन जातिच्युतों की कोई जाति तो इतनी शीघ्र बन नहीं सकती : उनकी पहली रिश्तेदारियाँ मब उसी जातिमें होती हैं, जिससे उन्हें
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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