SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ verereare? verarerarer-02 Gereereererery Gerarererererererarerererererever लेखक:सामाजिक जैन समाज क्यों मिट रहा है? अयोध्याप्रसाद गोयलीय ( क्रमागत ) terererecerere-3 8-988804 pererererrerer Pererererereren प्रगति 2Jee. जैन-समाजकी उत्पादन-शक्ति ही क्षीण हुई दिया गया, कोल्हुओंमें पेला गया, दीवारोंमें चुन होती, तोभी गनीमत थी, वहाँ तो बचे-खुचों दिया गया, उसका पड़ोसी बौद्ध-धर्म भारतसे को भी कूड़े-करकटकी तरह बुहार कर बाहर फैका खदेड़ दिया गया –पर वह जैन-धर्म मिटायेसे जारहा है। कूड़े-करकटको भी बुहारते समय देख न मिटा । और कहता रहालेते हैं कि कोई क्रीमती अथवा कामकी चीज़ तो कुछ बात है जो हस्ती मिटती नहीं हमारी । इसमें नहीं है; किन्तु समाजसे निकालते समय सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा ॥ इतनी सावधानताभी नहीं बर्ती जाती। जिसके -"इकबाल" प्रतिभी चौधरी-चुकड़ात, पंच-पटेल रुष्ट हुये जो विरोधियोंके असंख्य प्रहार सहकर भी अथवा जिसने तनिकसी भी जाने, अनजाने भूल अस्तित्व बनाये रहा, वही जैनधर्म अपने कुछ की, वही समाज से पृथक कर दिया जाता है । इस अनुदार अनुयाइयोंके कारण ह्रासको प्राप्त होता प्रकार जैन-समाजको मिटानेके लिये दुधारी तल- जा रहा है। जिस सुगन्धित उपवनको कुल्हाड़ी न वार काम कर रही है। एक ओर तो उत्पादन शक्ति- काट सकी, उसी कुल्हाड़ीमें उपवनके वृतके बेटे तीण करके समाजरूपी सरोवर का स्त्रोत बन्द कर लग कर उसे छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। दिया गया है, दूसरी ओर जो बाकी बचा है, उसे बहुत उम्मीद थीं जिनसे हुए वह महबों कातिल । बाहर निकाला जारहा है। इससे तो स्पष्ट जान हमारे कत्ल करनेको बने खुद पासवाँ कातिल ॥ पड़ता है कि जैन-समाजको तहस नहस करनेका पूरा संकल्पही कर लिया गया है। सामाजिक रीति-रिवाज उलंघन करनेवालेके लिये जाति वहिष्कारका दण्ड शायद कभी उप जो धर्म अनेक राक्षसी अत्याचारों के समक्ष योगी रहा हो, किन्तु वर्तमानमें तो यह प्रथा भी सीना ताने खड़ा रहा, जिस धर्मको मिटानेके बिल्कुलही अमानुषिक और निन्दनीय है । जो कवच लिये दुनियाँ भरके सितम ढाये गये,धार्मिकस्थान समाजकी रक्षाके लिए कभी अमोघ था, वही नष्ट-भ्रष्ट कर दिये गये, शास्त्रोंको जला दिया गया, कवच भारस्वरूप होकर दुर्बल समाजको पृथ्वीधर्मानुयाइयोंको औंटते हुये तेलके कदात्रोंमें छोड़ में मिला रहा है।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy