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वर्ष २, किरा ६ ]
भगवती श्राराधना और शिवकोटि
निसर्गस्त्रिविधः--- कायनिसर्गाधिकरणं, वाग्निसर्गाधि- कोई दूसरे ही शिवकोटि मालूम पड़ते हैं; क्योंकि यदि
करणं, मनोनिसर्गाधिकरणं चेति । अ० ६, सू०६ कीटीका । यह सब व्याख्या भगवती आराधना ग्रंथकी निम्न गाथाओं ( नं० ८१४, ८१५) परसे ली गई जान पड़ती हैसहसाणाभोगियदुष्पमज्जिद अपच्ववेक्खणिक्खेवो । देहो व दुप्पउत्तो तहोवकरणं च शिव्वित्ति ।। संजोयमुवकरणां च तहा पाणभोयणाणं च । दुणिसिट्ठा मणवचकाया भेदा सिग्गस्स ||
ये शिवकोटि ही समन्तभद्रके शिष्य होते, तो वे अपने गुरु समन्तभद्रका स्मरण ग्रन्थमें जरूर करते और उनकी भस्मक व्याधि दूर होने तथा चन्द्रप्रमकी मूर्तिके प्रकट होनेवाली घटनाका भी अन्य उदाहरणोंकी तरह उल्लेख करते । परन्तु भगवती श्राराधनामें ऐसा कुछ भी नहीं किया गया, इससे यह बात अभी सुनिश्चित रूपसे नहीं कही जासकती कि ये शिवकोटि ही समन्तभद्रके शिष्य हैं। जबतक इसका समर्थन किसी प्राचीन प्रमाणसे न होजाय तब तक यह कल्पना पूरी तौरसे प्रामाणिक नहीं मानी जासकती और न इस पर अधिक जोर ही दिया जासकता है।
इस तरह शिवकोटि अथवा शिवार्य श्राचार्य पूज्यपादसे पहले होगये हैं; परंतु कितने पहले हुए यह यद्यपि अभी निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता, फिर भी समंतभद्र तक उसकी सीमा जरूर है।
समन्तभद्रका शिष्यत्व
श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० १०५ में, जो शक संवत् १०५० ( वि० सं० १९८५) का लिखा हुआ है, शिवकोटिको समन्तभद्रका शिष्य और तस्वार्थ सूत्रकी टीकाका कर्ता घोषित किया है । यथा:तस्यैव शिष्यश्शिवकोटिसूरिस्तपोलतालम्बनदेहयष्टिः संसारवाराकरपोतमेतत्तत्त्वार्थसूत्रं तदलंचकार ॥
'विक्रान्तकौरवनाटक' के कर्ता श्राचार्य हस्तिमलने भी, जो विक्रमकी १४वीं शताब्दीमें हुए हैं अपने निम्न श्लोक में समन्तभद्रके दो शिष्यों का उल्लेख किया हैएक शिवकोटि, दूसरे शिवायनःशिष्यौतदीयो शिवकोटिनामाशिवायनः शास्त्रविदांवरेण्यौ कृत्स्नश्रुतं श्रीगुरुपादमूले प्रधीतवन्तौ भवतः कृतार्थो
उक्त दोनों पद्यों में जिन शिवकोटिको समन्तभद्रका शिष्य बताया है वे भग० आराधनाके कर्त्तासे भिन
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'भगवती श्राराधना' के तस्वार्थसूत्र विषयक अनुसरणको देखनेसे तो यह कल्पना भी हो सकती है कि इन्हीं प्राचार्य शिवकोटिने तत्त्वार्थसूत्र की टीका की हो, तब ये शिवकोटि समन्तभद्रके शिष्य ही ठहरते हैं; क्योंकि १०५ नं० के उक्त शिलावाक्य में प्रयुक्त हुए 'एतत्' शब्दसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वह तत्त्वार्थ सूत्रकी उस टीका परसे लिया गया है जिसे समन्तभद्रके शिष्य शिवकोटिने रचा है। परन्तु श्राचार्य शिवकोटिने अपने जिन गुरुओं का नामोल्लेख किया है उनमें श्राचार्य समन्तभद्रका कहीं भी जिक्र नहीं है, यह एक विचारणीय बात जरूर है। हाँ, यह हो सकता है कि समन्तभद्रका दीक्षानाम 'जिननन्दि' हो; तब समन्तभद्रके शिष्यत्व विषयकी सारी समस्या हल होजाती है। इसमें सन्देह नहीं कि एक शिवकोटि समन्तभद्र के शिष्य जरूर थे, और वे संभवतः काचीके राजा थे-बनारसके नहीं; किन्तु वे यही शिवकोटि हैं, और इन्होंने ही तस्वार्थ सूत्रको सर्व
* देखो, श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार-रचित 'स्वामी समन्तभद्र (इतिहास)' पृष्ठ ६६ ।