SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 554
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०० अनेकान्त [आषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६५ अर्थात्-शानावरण कर्मके उदयसे पदार्थोंका शान टीका-पत्र हि ज्ञानोपयोगोपि स्वभावविभावनहीं होना 'अजान' नामका श्रौदयिक माव है। भेदात् द्विविधो भवति । इह हि स्वभावज्ञानं अमूर्तम्, पदार्थोके विपरीत श्रद्धान करानेमें दर्शन मोहनीय भन्यावाधम्, भतीन्द्रियम्, भविनश्वरम्, तबकार्यकारण का उदय कारण पड़ता है-शानावरण कर्मका उदय स्पेण विविधं भवति । कार्य सावत् सकलविमलकेवलनहीं। ज्ञानावरणका उदय तो ज्ञानके अभावमें ही ज्ञानम् । तस्य कारणं परमपारिणामिकभावस्थितत्रिकारण पड़ता है, जैसा कि पंचाध्यायीके निम्न वाक्यसे कालनिरुपाधिरूपं सहजज्ञानं स्यात् । केवलं विभावप्रकट है-- स्पाणि ज्ञानानि त्रीणि कुमति कुश्रुत-विभंगीजि हेतुः शुद्धात्मनो ज्ञाने शमो मिथ्यात्वकर्मणः। भवन्ति ॥ प्रत्यनीकस्तु तत्रोच्चैरशमस्तत्र व्यत्ययात् ॥ २-६७ अर्थात्--जीव उपयोगमयी है । उपयोगज्ञान दर्शन । अर्थात्--शुद्ध अात्माके शानमें कारण मिथ्यात्व के भेदसे दो प्रकारका है। यह ज्ञानोपयोग स्वभावकी कर्मका उपशम है । इसका उल्टा मिथ्यात्व कर्म उदय अपेक्षासे भी दो प्रकारका है। एक कार्य स्वभावज्ञान, है । मिथ्यात्व कर्मके उदयसे शुद्धात्माका अनुभव नहीं दूसरा कारण स्वभावज्ञान । समस्त प्रकारसे निर्मल हो सकता । आगे इसे और भी स्पष्ट किया है- केवलज्ञान कार्य स्वभाव ज्ञान है। इसीके बलज्ञानका मोहेऽस्तंगते पुंसः शुद्धस्यानुभवो भवेत् । कारणरूप परम परिणामिक भावमें स्थित विभाव रहित न भवेद्विग्नकरः कश्चिच्चारित्रावरणोदयः ॥ आत्माका सहज ज्ञान कारण स्वभाव ज्ञान है। कारण . -पंचाध्यायी, ६८८ । स्वभावज्ञानके द्वारा ही कार्यस्वभावज्ञान प्राप्त होता है । अर्थात्-दर्शन मोहनीय कर्मका अनुदय होने पर विभावज्ञान सिर्फ तीन ही है-कुमति, कुश्रुत, और श्रात्माका शुद्ध अनुभव होता है। उसमें चारित्र मोह- विभंगावधि । नीयका उदय भी विघ्न नहीं कर सकता। इसी भावको नियमसारमें इस प्रकार स्पष्ट किया शुद्ध श्रात्माके अनुभवकी सम्यग्दर्शनके साथ हैव्याप्ति है । सम्यग्दर्शनके होने में दर्शन मोहनीयका अनु- सरणाणं चदुभेयं मदिसुदमोही तहेव मणपज । दय ही मूल कारण है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो चेव ॥ आत्माको मलिन करनेमें मोहनीय कर्म प्रधान-कारण अर्थात्-संज्ञानके चार भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि है । शानावरण कर्मके उदयसे ज्ञानगुणमें विकार नहीं और मनःपर्यय ज्ञान । विभावज्ञान अर्थात् अज्ञानके तीन भाता; किन्तु ज्ञानका अभाव हो जाता है । जहाँ ज्ञान भेद हैं कुमति, कुश्रुत, कुअवधि । गुणमें विकार आता है, वहाँ मिथ्यात्वके संसर्गसे ही आचार्य कुंदकुंदके इस कथनसे स्पष्ट हो जाता है, पाता है। प्राचार्य कुन्दकुन्दने भी इसी भावको नियम- किशानको विभावरूप सिर्फ मोहनीयके कारण कहा सारमें इस प्रकार प्रगट किया है-- - . गया है । यद्यपि शान पर मोहनीयका कोई खास असर "जीवो उवमो गमभो उवमोगो णाणदसणो होई । नहीं होता है, फिर भी मिथ्यात्वके उदयसे ही मतिश्रुत, गाणुवमोगो दुविहो सहावणाणं विहावणाणत्ति" अवधि विभाव रूप कहलाने लगते हैं और इसीसे कुमति,
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy