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________________ १२४ अनेकान्त्र [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ दृष्टि अर्पण करनेवाला और अपने लाभको कर आत्मरमणता प्राप्त की जाती है ) और तप छोड़कर दूसरोंका हित साधन करनेकी प्रेरणा (जिसमें परसेवाजन्य श्रम, ध्यान और अध्ययनका करनेवाला-इम तरहका अतिशय उपकारी समावेश होता है ) इन तत्त्वोंका एकत्र समावेश व्यावहारिक (Practical) और सीधासादा महा- ही धर्म अथवा जैनधर्म है और वही मेरे शिष्यों को वारका उपदेश भले ही आज जैनसमुदाय समझने तथा सारे संसारको ग्रहण करना चाहिए, यह का प्रयत्न न करं, परन्तु ऐसा समय प्रारहा जताकर उन्होंने इन तीनों तत्त्वोंका उपदेश है कि वह प्रार्थनासमाज, ब्रह्मसमाज, थियोसोफि विद्वानोंकी संस्कृत भाषामें नहीं; परन्तु उस समय कल सुमाइटी और यूरोप अमेरिकाकं संशोधकोंके की जनसाधारणको भाषामें प्रत्येकवर्णक स्त्री पुरुषों के मस्तक में अवश्य निवास करंगा। सामने दिया था और जातिभेदको तोड़कर क्षत्रिय __ सारे संसारको अपना कुटुम्ब माननेवाले महाराजाओं, ब्राह्मण पण्डितों और अधमसे अधम महावीर गुरुका उपदेश न पक्षपाती है और न गिने जानेवाले मनुष्योंको भी जैन बनाया था तथा किसी खास समृहके लिए है । उनके धर्मको स्त्रियोंक दर्जेको भी ऊँचा उठाकर वास्तविक सुधार 'जैनधर्म' कहते हैं, परन्तु इसमें 'जैन' शब्द केवल की नींव डाली थी। उनके 'मिशन' अथवा 'संघ' 'धर्म' का विशेषण है । जड़भाव, स्वार्थबुद्धि, में पुरुष और स्त्रियाँ दोनों हैं और स्त्री-उपदेशिकायें संकुचित दृष्टि, इन्द्रियपरता, आदि पर जय प्राप्त पुरुषोंके सामने भी उपदेश देती हैं। इन बातोंसे करानेकी चाबी देनेवाला और इस तरह संसारमें साफ मालूम होता है कि महावीर किसी एक रहते हुए भी अमर और श्रानन्दस्वरूप तत्त्वका समूह के गुरु नहीं, किन्तु मार मनुष्य समाज स्वाद चग्वानेवाला जो उपदेश है उसीको जैनधर्म के सार्वकालिक गुरु हैं और उनके उपदेशों में से कहते हैं और यही महावीरोपदेशित धर्म है। वास्तविक सुधार और देशोन्नति हो सकती है। तत्त्ववेत्ता महावीर इम रहस्यस अपरिचित नहीं इमलिए इस सुधारमार्गक शोधक समय को थे कि वास्तविक धर्म, तत्त्व, सत्य अथवा आत्मा और देशको तो यह धर्म बहुत ही उपयोगी और काल, क्षेत्र, नाम श्रादिक बन्धन या मर्यादाको उपकारी है। इसलिए कंवल श्रावक कुल में जन्म कभी महन नहीं कर सकता और इसीलिए उन्होंने हुए लोगों में ही छुपे हुए इस धर्म रनको यनकहा था कि “धर्म उत्कृष्ट मंगल है और धर्म पूर्वक प्रकाश में लानेकी बहुतही आवश्य और कुछ नहीं अहिंमा, संयम और तपका एकत्र कता है। समावेश है।" उन्होंने यह नहीं कहा कि 'जैनधर्म प्राचीन समय में इतिहास इतिहासकी दृष्टि ही उत्कृष्ट मङ्गल है' अथवा 'मैं जो उपदेश देता हूँ से शायद ही लिखे जाते थे। श्वेताम्बर और वही उत्कृष्ट मंगल है।' किन्तु अहिंसा (जिसमें दिगम्बर सम्प्रदाय के जुदा-जुदा ग्रन्थों से, पाश्चादया, निर्मल प्रेम, भ्रातृभावका समावेश होता है) त्य विद्वानों की पुस्तकों से तथा अन्यान्य साधनों संयम ( जिससे मन और इन्द्रियों को वशमें रख से महावीर चरित्र तैयार करना पड़ेगा। किसी
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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