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________________ २७० अनेकान्त [ माघ, वीर निर्वाण सं० २४६५ - पानीसे गुदाको धोते हैं साथ लिये फिरते हैं, उसी अर्थात् -- पहले किये हुए करोड़ों पापोंकी धूल जमकमण्डलुके, पानीसे धोए हुए हाथोंसे शास्त्र जमकर चित्त मलिन हो रहा है उस मिथ्यात्वको दूर लिये रहते हैं और स्वाध्याय आदि दूसरे धर्म- करनेवाला जो विवेक है वही वास्तविक स्नान है, जलकृत्य करते रहते हैं। इससे सिद्ध है कि स्नान करना के स्नानसे तो जीवोंका नाश होकर एकमात्र पापही धर्मसाधनके वास्ते ज़रूरी नहीं है किन्तु बाधक है। इस होता है, उसमें कुछ भी धर्म नहीं है और न उसके ही कारण मुनियोंको तथा उपवास कर्ताओंको स्नान द्वारा उस शरीरकी पवित्रताही बन सकती है, जो स्वभावकरनेका निषेध है। से ही अपवित्र है। उत्तमचन्द-स्नान करना धर्म साधन में बाधक है, उत्तमचन्द-अगर स्नान करना पाप है तो मुनियों यह आपने एकही कही ! भागेको शायद आप इसको और उपवास करने वालों हो को क्यों, अन्य सब ही लोगोंपाप बताने लगेंगे! को नहानेसे क्यों मना नहीं किया गया? ज्योतिप्रसाद-बाधक मैंने अपने ही मनमे नहीं ज्योतिप्रसाद-पहले दर्जे वाला अव्रती श्रावक तो बताया, किन्तु जैन-शास्त्रों में ही मुनि और उपवासकर्ता त्रस, स्थावर किसी भी जीवकी हिमाका त्यागी होनेको के लिये स्नानकी मनाही करके इसको बाधित सिद्ध तैयार नहीं होता है, हिंसादि पांचों पापोंको अंश रूपभी किया है । और बाधक ही नहीं किन्तु खुल्लम-खुल्ला पाप छोड़नेको हिम्मत नहीं करता है, तब उसके वास्ते तो बताया है। देखिये श्री पद्मनन्दि प्राचार्य पंचविंशतिका म्नानकी मनाही कैसे की जा सकती है ? दूसरे दर्जेवाला में इस प्रकार लिखते हैं: अणुव्रती भी एकेन्द्रिय स्थावर जीवोंकी हिंसाका तो आत्मातीव शुचिः स्वभावत इति स्नानं वृथास्मिन्या, त्याग नहीं करता है त्रस जीवोंकी भी एकमात्र कायश्चाशुचिरे व तेनशचितामभ्येति नो जातचित् संकल्पी हिंसाका ही त्याग करता है, प्रारम्भी स्तानस्यो भय थेत्य भूद्विफलता ये कर्वते तत्पुनः उद्योगी और विरोधी हिंमाका त्याग नहीं करता है। स्तेषां भूजलकीटकोटिहननात्पापाय रागाय च। इस कारण उसको भी म्नानकी मनाही नहीं की जा अर्थात - श्रात्मा शुद्ध है, उसको जल-स्नानकी क्या सकती है। हां, उपवास के दिन वह प्रारम्भ श्रा ज़रूरत है ? शरीर महा अपवित्र है, वह जल-स्नानसे गृहस्थके सबही कामोंका त्याग करके मात्र धर्म-साधन पवित्र हो नहीं सकता, इस कारण दोनों प्रकारके म्नानसे में ही लगता है, इसही कारण उस दिन उसको स्नान कुछ लाभ नहीं ? जो स्नान करते हैं उनको मिट्टी और करने की भी मनाही है। स्वामिकातकेय अपने अनुजल के करोड़ों जीवोंके मारनेका पाप लगता है और प्रेक्षा ग्रन्थमें लिग्वते हैंरागका पाप भी। उवासं कुब्वंतो आरभं जो करेदि मोहादो। चित्रे प्राग्भव कोटि संचितरजः संबंधिता विर्भवन्, सो णिय देहं सोसदि ण झाडए कम्म लेसंपि ॥३७८।। मथ्यात्वादि मल व्यपाय जनकः म्नानं विवेकः सताम्। अर्थात्-- जो उपवासमें मोह बस आरम्भ करता है, अन्यद्वारिकृतं तु जंतुनिकर व्यापाद नात्पाप कृत् वह उपवास करके अपनी देह ही को सुखाता है, कर्मों नो धर्मो न पवित्रता खलु ततः काये स्वभावाशुचौ ॥ की तो लेशमात्र भी निर्जरा नहीं करता है।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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