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अनेकान्त
[ श्राश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५
मातृत्वके उच्च प्रादोंकी शिक्षा व्यवहतरूपमें नमूना है ? पर्देकी कसमें जिन्दा दफनाई जाने पर पानेका नसीब नहीं मिला, जिसे पर्देके भीतर ही भी आह ऊह न करना ही क्या स्त्रीके गुणोंकी सारा संसार मनोनीत करना पड़ा वह स्त्री क्या चरम सीमा हो गई ? । तो झंझटों और कष्टोंका सामना कर सकेगी और हमारे सामने दोस्त्रियोंका उदाहरण है-पाठक क्या अपने पुत्रोंको युद्धमें भेजनेका गर्व हासिल देखें और फिर निर्णय करें कि नैतिकतामें कौन कर सकेगी? उसकी नैतिकताकी कच्ची दिवार तो- आगे बढ़ी-चढ़ी है । एक स्त्री खुले मुँह चारों ओर डनेका प्रयत्न कौन व्यक्ति करनेमें अपनेको असमर्थ निश्चिन्त हो स्वेच्छापूर्वक आ जा सकती है। उसे पायगा ? वह किस बूतेके बल पर अपने सतीत्वकी न तो इधर-उधर घूमने में डर है और न अपनेमें रक्षा अकबरकी छाती पर चढ़ कर खून भरी कटार अविश्वास । वह निधड़क हो सैकड़ों गुण्डोंके से लेनकी हिम्मत कर सकेगी? यह थोथा विचार बीच होकर गुजर जाती है-किसीकी मजाल है कि हम पर्देकं भीतर रहकर सतीत्व और नैतिकता कि उसके स्त्रीत्वके आगे चूं चपड़ कर सके ! की रक्षा कर रही हैं कितना बेहूदा और हास्यास्पद दूसरी ओर एक और स्त्री है जो सफेद कबके है ! इस कथन पर किस महिलाको, जिसने स्वतंत्र कारण दूषित हवासे निर्बल और पस्त हिम्मत वायुमें पलकर जीवनकी स्फूर्ति पायी है, खुले मुंह बनादी गई है। चारों ओर वह घूम फिर भी नहीं रहकर संसारकी भीपण वृत्तियोंका संग्राम देखा सकती, लज्जा और शर्मके मारे वह अपना सर तो है, हँसी न आयेगी?'
पहले ही से छिपा बैठी थी कि गुण्डों का एक समूह ___एक लम्बे अर्से पहले कहे गये ये उद्गार आज उधर आ निकला-दिलके सभी उबार उसने भी हमारे समाजके विचारवान स्त्री और पुरुषके अश्लीलसे अश्लील भाषामें निकाल डाले पर इन दिमाग़ पर जोरसं कील ठोक सकते हैं उन्हें बातोंको सुनकर न तो वह लाजवन्ती पृथ्वीमें अपनी संकुचित नैतिकताकी मर्यादाका भान करा घुसी और न पहाड़से गिरी ! पत्थरकी मूर्ति-सो सकते हैं। मैं सोचती हूँ, हमारे समाजके अधि- वहीं की वहीं बैठी रही । अब यहीं इस उदाहरणकांश व्यक्ति हमारे महिला-समाजकी नैतिकताके को पेश करनेके बाद मैं अपने समाजके पुरुष और लिये और किसी देशकी स्त्रियोंकी नैतिकतासे स्त्री वर्गसे पछती हूँ कि यहाँ पर कौन स्त्री नैतिक तुलना करने पर गर्व करेंगे और कई अंशोंमें उनका दृष्टिसे बढ़ी-चढ़ी है ? पर्दमें मुख छिपाए दुष्टोंकी गर्व करना ठीक भी है पर मैं यह जानना चाहती ग़ज़लें चुपचाप सुननेवाली या निधड़क सिंहनी-सी हूँ कि कामी और बेहूदापतिकी अनुचित मांगोंका इधर-उधर घूमनेवाली-जिसकी आँखोंके तेजके चुपचाप पालन करते रहना ही क्या स्त्री समाजकी सामने कामी कुत्ते ठहर ही नहीं सकते, देखना नैतिकताकी अंतिम सीढ़ी है ? एक गायके माफिक और बोलना तो दूर रहा ? दिन और रात लांछनों और फब्तियोंके कड़वे इस उदाहरणमें यदि आप पर्देवालीकी नैतिक घूटोंको पीते रहना ही क्या पतिभक्तिका सच्चा शक्तिको गई गुजरी समझते हैं तो मैं यह विश्वास