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नारासमन्थान
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यह सितमगर कब [ले०-श्री कुमारी पुष्पलता]
यह लेख पर्दा-प्रथाके विरोध बड़ा ही मार्मिक है और पुरुष वर्ग तथा स्त्रीवर्ग दोनोंहीके लिये खब गंभीरताके साथ ध्यान देनेके योग्य है। इसे 'मोसवाल' पत्र में देते हुए उसके विद्वान् सम्पादकने । जो नोट दिया है वह इस प्रकार है___ "इस लेखमें विदुषी महिलाने बड़ी चुलबुल और प्राघात करने वाली भाषामें हमारी पर्दा प्रथाके दो चार चित्र खींचे हैं, जिनकी भीषणता और दानवी लीलासे कोई भी पाठक दो मिनटके लिये हतबद्धि-सा हो उठेगा। पर्दाकी उत्पत्ति,उद्देश्य, लाभ, हानि आदि पर आज तक न मालम कितने लेख लिखे गये हैं पर इस प्रकार भीतरी प्राघात करने वाले चलचित्र बहुत कम देखने में पाते हैं। यद्यपि लेखिका कहीं पर भी उपदेशकके तौर पर पाठकोंसे यह-वह करनेका मादेश नहीं देती है, वह तो सिर्फ इनकी जिन्दा मगर । घिनौनी तस्वीरोंको खींच चुप हो जाती हैं; पर पाठकों और यवकोंसे प्रार्थना है कि जितना जल्दी इस प्रथा का अन्त किया। जाय उतना ही अच्छा होगा।" .. -सम्पादक]
माके देशमें नैतिकताका अर्थ बहुत ही तो चुपचाप उस जहरके प्यालेको हृदयमें उँडेल लें
संकुचित दायरेमें लिया जाता है"-यू. वह देश किस स्त्री-गौरवकी महिमा गानेका फतवा रूपकी एक महिलाने भारतीय स्त्रियोंकी सभामें दे सकता है ? उस देशकी स्त्रियोंसे सीता और बोलते हुए एक बार कहा था। "जिस देशकी स्त्रियाँ दमयन्तीके आदोंकी क्या प्राशा की जा सकती गुण्डों और बदमाशोंकी फब्तियोंका घुट चुपचाप है ? जिसे संसारकी विकट परिस्थितियों और पीलें, अपने आस-पास उन्हें कामी भौरों-सी भीड़ उलझनोंको देखनेका मौका नहीं मिला, जिसने जमाकर बैठने दें, यदि कोई हाथा पाई कर भी ले युद्धके भीषण दृश्योंका नजारा नहीं देखा, जिसे