SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 488
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [ज्येष्ट, बीर-निर्माण ०२१ प्रशस्ति इस प्रकार है:- . ... है। उनकी तत्वार्थसूत्र-व्याख्या 'सर्वार्थसिद्धिं' का इस "चन्द्रनन्दि-महाकर्मप्रकृत्याचार्य-अशिष्येण मारा- टीकामें बहुत कुछ अनुसरण किया गया है-उसके तीपरिपूलामणिना नागनन्दिगणिपादपमोपजात- वाक्यों तथा प्राशयको 'तथा चोक्तं' 'तथाचाभ्यन्यायि' मदिन पबदेवसूरिशिष्येव बिनशासनोवरणधीरेण और 'अन्ये श्रादि ग्रन्दोंके साथ अथवा उनके बिना या प्रसरेणापराजितरिया श्रीनन्दिगणिना भी प्रकट किया गया है-,जिससे इतना तो स्पष्ट हो बोरिन रविता आराधनाढीका श्रीविजयोत्या माना जाता है कि अपराजितसूरि विक्रम की छठी शताब्दीके बाद हुए हैं । सर्वार्थसिद्धिके ऐसे कुछ वाक्य उन समें बतलाया है कि 'इस टीकाके कर्ता अपरा- गाथाओंके नम्बर-सहित जिनकी टीकामें वे पाये जाते जितपरि चन्द्रनन्दि नामक महाकर्मप्रकृत्याचार्य के प्रशिष्य हैं,टीका वाक्यके साथ, नमूनेके तौर पर इस प्रकार हैं: और बलदेवसूरिके शिष्य थे, श्रारातीय प्राचार्योंके (१) गाथा १८४७-तथा चोक्तं "एकदेशकर्मसंजयचड़ामणि थे, जिनशासनका उद्धार करने में धीर लक्षणा निर्जरा"(सर्वार्थसि० अ०१ सू० ४) इति । तथा यशस्वी थे, और नांगनन्दिगणीके चरणोंकी सेवासे (२) गाथा नं.१८०-"रागो कात्यहाससम्मिमोउन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था और श्रीनन्दिगणीकी प्रेरणासे शिष्टवाक्प्रयोगः कंदर्पः" (सर्वार्थ ०अ० ७-३२) उन्होंने 'भगवती श्राराधना' नामक ग्रंथकी यह 'विजयो- (३) गाथा नं० १७७२-अन्ये तु भव परिवर्तनमेवदया' नामकी टीका लिखी है।' वदन्ति-"नरकगतौ सर्वजघन्यमायुर्दशवर्षसहस्त्राणि । इस प्रशस्तिमें दी हुई गुरुपरम्पराका अन्यत्र किमी तेनायुषा तत्रोत्पनः पुनः परिश्रम्य तेनैवायुषा तत्र प्राचीन शिला लेख या पट्टायलिमें ऐमा उल्लेख नहीं जायते । एवं दशवर्षसहस्राणां यावंतः समयास्तावत्कृत्वा मिलता जिससे टीकाकारके समयादिका ठीक निर्णय 'तत्रैव जातो मृतः पुनरेकसमयाधिकभावेन त्रयस्त्रिंशकिया जासके। ऐमी स्थितिमें श्राचार्य अपराजितके स्सागरोपमाणां परिसमा पितानि ततः प्रच्युत्य तिर्यग्गती । समयादिका निर्णय करनेमें यद्यपि कितनी ही कठिना- अन्तर्मुहूर्तायुः समुत्पनः पूर्वोक्तन क्रमेण त्रीणि पल्योप इयाँ उपस्थित हैं, फिर भी टीका में प्रयुक्त हुए याक्योंका मानि परिसमापितानि । एवं मनुष्यगतौ । देवगती गवेषणापूर्वक अध्ययन करनेसे समयादिके निर्णयमें नारकवत् । अयं तु विशेषः एकत्रिंशत्सागरोपमाणि परिबहुत कुछ सहायता मिल जाती है। समापितानि यावत्तावनवपरिवर्तनम ।" अपराजितसूरिने अपनी इस टीकामें श्रीकुन्दकुन्द, (सर्वार्थ०२-१०) उमास्वाति, समन्तभद्रादि दिगम्बर प्राचार्योंके ग्रंथोंके इसी प्रकार कर्मद्रव्यपरिवर्तन, नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन, अतिरिक्त श्वेताम्बर सम्प्रदायके कल्पसूत्र, भावना लथा क्षेत्रपरिवर्तनादिका स्वरूप भी सर्वार्थसिद्धि के दूसरे श्रावश्यकादि ग्रंथोका भी उपयोग किया है। पुरातन अध्याय के १०वें सूत्रकी व्याख्यासे लिया गया है। दिगम्बराचार्योंमें जैनेन्द्र व्याकरण और समाधितंत्र श्रादि आचार्य पूज्यपादने इन परिवर्तनोंका स्वरूप निर्दिष्ट करते ग्रंथोंके रचयिता प्राचार्य पूज्यपादका समय सुनिश्चित : हुए इनकी पुष्टि के लिये प्राचार्य कुन्दकुन्दकृत 'बारस it और वह विक्रिमकी छठी (ईसाकी पांचवी ) शनान्दी अणुवेकवा' ग्रंथकी जो पाँच गाथाएँ 'उक्तं च' रूपसे
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy